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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ठूण मोहमल्लं हरिसवसुब्भिन्नपुलयपडहत्थो । वंदइ वसुहाविलुलियकिरीडकोडी महीनाहो ॥२४२४।। अवसेसे य मुणिवरे नमिऊण जहारिहं गुणसमिद्धे । संपत्तधम्मलाभो उवविसइ विसुद्धवसुहाए ॥२४२५।। आणाविओ सहरिसं नरवइणा सो सुओ जणसमक्खं । पणमइ भूनिहियसिरो सूरिस्स इमं च जंपेइ ।।२४२६।। 'तुह दंसणेण मुणिवइ ! जं पुन्नं पावियं मए अज्ज । तेण मह होउ मोक्खो इमामो भवपंजरदुहाओ' ।।२४२७।। इय भणिऊणं विरए कीरे नीसेसजणसमूहेण । कोऊहलेणक्खित्ता तंमि समं नयणनिक्खेवा ।।२४२८॥ तो भणइ सुओ ‘भयवं ! तिरियत्तं जमिह मज्झ संपत्तं । जाणेमि तं उवट्ठियफलमेयं दुकयकम्मस्स ॥२४२९।। एयस्स अवगमो जेण होइ धम्मेण तं महं कहसु । निम्विन्नो म्हि इमाओ सुयत्तजम्माओ मुणिनाह !' ||२४३०।। तो कहइ सजलजलधरगंभीरसरो सुयस्स परिसाए । सूरी अपारसंसारजलहिपोयं व जिणधम्मं ।।२४३१।। संसारनयरमज्झे चउगइचउहट्टमज्झयारंमि ।। नियकम्मवसेण जिओ अणंतवारा परिब्भमिओ ।।२४३२।। नाणाजोणीबहुदुमनिरंतरे एत्थ भीमभवरन्ने । चंचलपयई जीवो परियत्तइ इह यवंगो (पयंगो?) व्व ॥२४३३।। एगिदिएसु जायइ पुढवी-जल-जलण-अनिलभेएसु ।' वणसइ-तसेसु तत्तो किमि-कीड-पयंगमाईसु ।।२४३४।।
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