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________________ २०८ सिरिभुयणसुंदरीकहा॥ मरणं पि हु सलहिज्जइ पविसिज्जइ हुयवहम्मि पज्जलिए । सहिउं न तीरइ च्चिय अणिठ्ठजणसंगमो एक्को ॥२२६८।। इय एवमाइ सव्वं हियए बहु सोइऊण विजयवई । पभणइ विलासलच्छि सगग्गयं वयणविन्नासं ।।२२६९।। 'वच्छे ! न केवलं चिय मह आसि तहेव अज्जउत्तस्स । दायव्वा चंदसिरी कुमरस्स मणोरहो एवं । ॥२२७०।। ता पुत्त ! तुच्छपुन्नाण होइ कहं वंच्छियत्थसंसिद्धी ? ।' इय भणिऊणं देवी सदुक्खमह रोयए बहुयं ॥२२७१।। तो सा विलासलच्छीए कहवि पडिबोहिया महादेवी ।। हिययट्ठियचंदसिरीविसूरियव्वेहिं परिसुसइ ॥२२७२॥ अह जणपरंपराए मुणियं सिरिवीरसेणकुमरेण । जं हरिया चंदसिरी अणिच्छमाणा असोएण ॥२२७३॥ तो विरहदुक्खसंतावनीसहंगो वि पयइगंभीरो । अणुसयवसेण बहुविहवियप्पसयसंकुलो जाओ ॥२२७४॥ 'मह अणुरत्त'त्ति वियाणिऊण विज्जाबलेण अबलाए । अवहरणे तुह सत्ती न उणो मह मूलच्छेयम्मि ॥२२७५॥ अन्नासत्तम्मि पसत्तपाव ! का तुह विवेयसामग्गी ? । नामेण परमसोओ चरिएण य सोयणिज्जो सि ॥२२७६।। जइ जीवइ चंदसिरी जंबुद्दीवम्मि वसइ जइ कहवि । ता गंतूण दुमज्ज(ग्गं?) हाणं आणेमि नियमेण ॥२२७७॥ को इह जुत्ताजुत्तम्मि वियारए मयणपरवसो पुरिसो ? । वल्लहजणाण लग्गाण किं पि जं होइ तं होउ ।।२२७८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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