________________
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
अइविविहजत्तपरिवालियासु संपुन्नगुणसहस्सासु । वेसासु व धूयासु परोवयारासु को नेहो ? भवियव्वयावसेणं जं जह भव्वं तहेव तं होइ । एएण विलविएणं जइ वलइ सुया न किं वलिया ? || २२५८ ।। जं न निव ! सु ( सू ) वउत्तं हासद्वाणं च जं बुहाणं पि । कह तं कज्जं गंभीर-धीरहियया अणुवंति ?
अवहरिया सा तुह दुक्खकारणं खेयरस्स तु सुहत्थं । परियप्पणा दोह वि सुह-दुक्खे न उण तत्तेण जइ ताव वियप्पकयं होइ सुहं अह दुहं च लोयम्मि । अप्पायत्तम्मि सुहे ता किं दुहवियप्पेहिं ?
इय देव ! तुज्झ पच्चक्खसव्वसुहुमयरभवसरूवस्स । अम्हारिसोवएसो पयडइ धित्तणं नवरं इय देव ! विसमसंसारपंजरे विविहदुहसलायम्मि । जा निवसिज्जइ ता दुक्खमेव सव्वं न किं पि सुहं' इय एवमाइ पन्नायरेण बहुयं नराहिवो भणिओ । तहवि न धूयाअवहरणसोओ हिययाओ उत्तरिओ लोउवरोह- लज्जाइएहिं कयभोयणाइववहारो । उब्बिग्गमाणसो चिय अणुदियहं अच्छए राया अह सव्वं परिकहियं विलासलच्छीए अवसरावडियं । चंदसिरि-वीरसेणाण वइयरं रायपत्तीए
तो चंदसिरीपियविप्पओयदुक्खेण पीडिया देवी । 'विलवइ अणिट्ठसंगमदुहम्मि कह निवडिया धूया ?"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२०७
।।२२५७॥
॥२२५९॥
।।२२६०।।
।।२२६१।।
।।२२६२ ।।
।।२२६३ ।।
।।२२६४।।
।।२२६५।।
।।२२६६॥
।।२२६७।।
www.jainelibrary.org