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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ अणुविद्धरूवदंसण-उप्पाइयमणचमक्कारा ।।११६८॥ भणइ सहि ! एहि पेच्छसु पच्चक्खं ढुक्कुहे(?) नियं रूवं । पुट्विं न पत्तियायसि जहत्थभणिराण अम्हाण ||११६९।। सहि ! दोन्नि पयावइणो इह भुयणे मह मणम्मि निवसंति । घडिया सि जेण एवं एवं चिय जेण लिहिया सि ॥११७०।। ता एवमहं जाणे न एस करलेहणीण वावारो । तुह रूवबिंबयस्स व अमयरसदस्स पडिबिंबं ॥११७१।। अहवा मयणरसड्ढे नियहियए ठावियासि तं जेण । तत्तो व्व विरहरूयवह-उव(व्व)ट्ठा(?) एत्थ संकंता ।।११७२।। आगंतूण समीवं चंदसिरी जा निएइ निउणयरं । ता तत्थ तं तहत्थिय विलासलच्छीए जह भणियं ।।११७३।। अहह ! महच्छरियमिणं रेहाविन्नासवससमुब्भूवं(यं) । लडहत्तणमंगाणं कहं नु आराहियं तेण ? ॥११७४।। अह तं पि होइ कहमवि अब्भासवसेण कहमिमो होइ । पच्चंगचंगिमागुण - संबद्धा सव्वतणुसोहा ? ॥११७५।। जो उण इमीए भावो सो नणु कहमेत्थ तेण सच्चविओ । जस्स वसा अंगाइं निहित्तजीवाइं व फुरंति ? ||११७६।। जो मज्झ पुरा हुतो विचित्तकमचित्तकम्मगुरुगव्यो । एएण सो पणट्ठो दिटेण वि भित्तिचित्तेण ।।११७७।। ता केण इमं लिहियं लिहियं वा केण वा वि कज्जेण ? । सहि ! साहसु मह सव्वं अइसयबुद्धी तुमं जेण ।।११७८।। एयवयणावसाणे विलासलच्छीए भणिउमाढत्तं । सहि ! जेण इमं लिहियं सो कोइ न होइ सामन्नो ॥११७९।।
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