SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र [ ३७ ] ननं न मोह - तिमिरावृत - लोचनेन , पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः , प्रोद्यत्प्रबन्ध-गतयः कथमन्यथते ॥ हे प्रभो ! मेरी आँखों पर मिथ्यात्व-मोह का गहरा अन्धेरा छाया रहा, फलतः मैंने पहले कभी एक बार भी आपके दर्शन नहीं किए। यदि कभी आपके दर्शन किए होते, तो अत्यन्त तीव्र गति से विस्तार पानेवाले ये मर्म-भेदी अनर्थ मुझे क्यों पीड़ित करते? आपका भक्त और अनर्थ? इनका परस्पर मेल ही नहीं बैठता। [ ३८ ] आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि , ननं न चेतसि मया विधतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जन-बान्धव ! दुःख-पात्रं , यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः ॥ हे जनता के एकमात्र प्रियबन्धु भगवन् ! मैंने यथावसर आपका पवित्र नाम भी सूना, उपासना भी की और दर्शन भी किए-बाह्यदष्टि से सब कुछ किया, परन्तु भक्ति-भावपूर्वक कभी भी आपको अपने हृदय में धारण नहीं किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy