SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ कल्याण- मन्दिर स्तोत्र को अनन्त बताना चाहते हैं । उनका अभिप्राय यह है कि भगवान् की कांति, प्रताप और यश इतना महान है, जो सम्पूर्ण तीनों लोकों में भर जाने के बाद भी समाप्त न हो सका, फलतः पिण्डीभूत हो गया । [ २८ ] दिव्य-जो जिन ! नमत्- त्रिदशाधिपाना मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संग मे सुमनसो न रमन्त एव ॥ हे नाथ ! जब स्वर्ग के इन्द्र आपको नमस्कार करते हैं, तो उनकी दिव्य पुष्प मालाएँ रत्न जटित मुकुटों का सुमनों भी परित्याग कर झटपट आपके श्रीचरणों का आश्रय ले लेती हैं । पुष्प मालाओं का यह कार्य बिल्कुल उचित ही है, क्योंकि आप के श्रीचरणों का आश्रय मिल जाने के बाद ( अच्छे मनवाले ज्ञानी पुरुषों) को अन्यत्र कहीं पर सन्तोष ही नहीं मिलता । टिप्पणी भगवान् को नमस्कार करते समय देवेन्द्रों के मुकुट में लगी हुई फूलमालाएँ प्रभु के चरणों में आ गिरती हैं, यह कोई असाधारण बात नहीं है । जब भी कोई नमस्कार करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy