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टिप्पणी
तीर्थंकर भगवान् का जहाँ विराजना होता है, वहाँ भगवान् के चारों ओर देवता एक के बाद एक, तीन कोट का निर्माण करते हैं। तीन कोटों में से पहला कोट नीलमणि - नीलम का, दूसरा सुवर्ण - सोने का और तीसरा रजत - चाँदी का होता है ।
आचार्यश्री उपर्युक्त तीन कोटों के सम्बन्ध में कविता की उड़ान भरते हैं कि ये तीन कोट वस्तुतः नीलमणि, सुवर्ण आदि के नहीं हैं, अपितु भगवान् के दिव्य शरीर की कांति, भगवान् का प्रताप और यश ही समूहरूप में एकत्र हो गया है । क्यों एकत्र हो गया है ? इसका उत्तर यह है कि भगवान् की कांति, प्रताप और यश-तीन लोक में सर्वत्र फैल गये हैं । कहीं भी ऐसा स्थान नहीं रहा, जहाँ भगवान् की कांति, प्रताप आदि न पहुँचे हों। तीनों लोकों से बाहर फैलने के लिए स्थान ही नहीं है, क्योंकि आगे अलोक है । अतः कांति, प्रताप और यश स्थानाभाव के कारण भगवान् के चारों ओर पिण्ड के रूप में एकत्र हो गए हैं । जिस पदार्थ को और अधिक फैलने के लिए स्थान नहीं मिलेगा, वह अवश्य ही इकट्ठा हो जायगा ।
कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
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भगवान् के शरीर की कांति नील वर्ण की है, अतः वह नीलमणि का, प्रताप का वर्ण अग्नि के समान दीप्त है, अतः वह सुवर्ण का और यश का वर्ण श्वेत माना जाता है, अतः वह रजत का, दुर्ग प्रतिभासित होता है ।
1. प्रस्तुत कल्पना के द्वारा आचार्यश्री भगवान् की कान्ति आदि
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