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________________ कल्याण मन्दिर स्तोत्र १३ टिप्पणी पौराणिक साहित्य में हजारों कहानियाँ हैं कि हरि-हर आदि देवता किस प्रकार वासना के वश थे और उसकी तृप्ति के लिए यत्नशील थे ? महादेवजी के पास पार्वती थी, तो विष्णु के पास लक्ष्मी ! साधारण जन की तो स्थिति ही विचित्र है । अस्तु, आचार्य आश्चर्य प्रगट करते हैं कि जिस काम के आवेश में सारा संसार व्याकुल है, उसको हे प्रभो ! आपने क्षणभर में कैसे पराजित कर दिया ? समुद्र के वड़वानल का उदाहरण इस सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है । जल हमेशा ही अग्नि को नष्ट करता है, परन्तु समुद्र की वड़वानल - अग्नि समुद्र के जल को ही भस्म करती है । महान् लोगों की महान् ही बातें हैं । [ १२ ] स्वामिन्ननल्प - गरिमाणमपि प्रपन्नास त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः ? जन्मोदध लघु तरन्त्यतिलाघवेन, चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः । । हे प्रभो ! बड़े भारी आश्चर्य की बात है कि अनंताअन्त गरिमा - गुरुता वाले आपको, अपने हृदय में धारण करके भी भक्त जन बहुत हलके रहते हैं और संसार समुद्र को झटपट पार कर जाते हैं । इतना भार उठा कर भी इतना हल्कापन ! महान् आश्चर्य ! अथवा इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? महा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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