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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र विराजमान हो जाते हैं, तो उसके भयंकर से भयंकर मजबूत कर्म-बन्धन भी तत्काल ही शिथिल हो जाते हैं, ढीले पड़ जाते हैं। वन-मयूर ज्यों ही चन्दन के वृक्ष की ओर आता है, त्यों ही चन्दन पर लिपटे हुए भयंकर सर्प सहसा शिथिल हो जाते हैं-भागने लगते हैं। मोर के सामने साँप ठहर नहीं सकता। टिप्पणी कवि-प्रसिद्धि है कि चन्दन के वृक्ष पर सांप लिपटे रहते हैं। चन्दन और साँप ! बहुत बुरा मेल है । आत्मा भी चन्दन-वृक्ष के समान है । उसमें सद्गुणों की बहुत उत्कृष्ट सुगन्ध है, परन्तु सब ओर कर्मरूपी काले नाग जहर उगल रहे हैं, आत्मा-रूपी चन्दन को दूषित कर रहे हैं। परन्तु ज्यों ही भक्त भगवान का ध्यान करता है, भगवान् को अपने मन-मन्दिर में विराजमान करता है, त्यों ही कर्म सहसा शिथिल हो उसी, प्रकार भागने लगते हैं, जिस प्रकार मोर के आने पर चन्दन पर से साँप । [ ६ ] मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र ! __ रौद्ररुपद्रव-शतैस् त्वयि वीक्षितेऽपि । गो-स्वामिनि स्फुरित-तेजसि दृष्टमात्रे, चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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