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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
हे नाथ ! यह ठीक है कि मैं जड़-बुद्धि हैं और आप अनन्त उज्ज्वल गुणों के आकर-खान हैं। तथापि मैं प्रेम-वश आपकी स्तुति करने हेतु तैयार हो गया हूँ।
यह ठीक है कि समुद्र विशाल है और बालक के हाथ बहुत छोटे हैं। फिर भी क्या बालक अपने नन्हे-नन्हे हाथों को फैलाकर, अपनी कल्पना के अनुसार समुद्र के विस्तार का वर्णन नहीं करता ? अवश्य करता है।
टिप्पणी प्रश्न हो सकता है, जब भगवान् के अनन्त गुणों का अनन्त ज्ञानी भी वर्णन नहीं कर सकते, तो फिर तुम तो चीज ही क्या हो ? क्यों व्यर्थ ही अस्थाने प्रयास कर रहे हो ? आचार्य ने प्रस्तुत पद्य में इसी प्रश्न का उत्तर दिया है, और दिया है बहुत ही ढंग से !
कोई छोटा बालक समुद्र देख आया। लोग पूछते हैं-'कहो भाई, समुद्र कितना बड़ा है ?' बालक झट अपने नन्हे-नन्हे हाथ फैलाकर कहता है--'इतना बड़ा ।' बालक का यह वर्णन, क्या समुद्र की विशालता की सही का वर्णन है ? नहीं। फिर भी बालक अपनी कल्पना के अनुसार महातिमहान् को अणु बनाकर वर्णन करता है, और पूछने वाले प्रसन्न होते हैं । आचार्य कहते हैं कि ठीक इसी प्रकार यह मेरा भगवद्र्गुणों के वर्णन का प्रयास है। जैसा कुछ आता है-कल्पना दौड़ाता हूँ, चुप नहीं बैठ सकता। यह मेरा बाल-प्रयास भक्त जनता को कुछ न कुछ आमोद प्रदान करेगा ही।
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