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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र परन्तु उनका पूर्ण रूप से वर्णन तो वह भी नहीं कर सकता। प्रलयकाल में पानी के न होने पर समुद्र की रत्नराशि स्पष्ट रूप से दिखाई तो देने लगती है, परन्तु क्या कोई उनकी गिनतो भी कर सकता है ? नहीं कर सकता। टिप्पणी पहले के श्लोक में बताया गया था कि जिसने भगवान के दर्शन नहीं किए, वह भगवान् का स्वरूप क्या बता सकता है ? इस पर प्रश्न हो सकता है कि तुम नहीं बता सकते हो, केवलज्ञानी तो बता सकते होगें ? वे तो मोहकर्म को क्षय करने के बाद उत्पन्न होने वाले अनन्त केवलज्ञान से सब कुछ जान-देख सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत पद्य में दिया गया है कि केवलज्ञानी भी भगवान के स्वरूप का वर्णन पूर्णरूप से नहीं कर सकते ! जानना एक बात है और वर्णन करना दूसरी बात । केवल-ज्ञानी अनन्त-गुणों को जान तो लेते हैं, परन्तु अनन्त का वर्णन तो सम्भव नहीं है। अनन्त गुण, शब्दों के घेरे में नहीं आ सकते । अस्तु, भगवान् सदा अवर्णनीय ही रहते हैं । [ ५ ] अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कतुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज-बाहु-युगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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