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________________ चारित्र्य सुवास ५३ सत्य बोध मिलता है। ऐसा हुए बिना बाह्य क्रियाकाण्ड आदि अथवा अन्य जप-तप- शास्त्राभ्यास आदि दीर्घकाल तक करनेपर भी फल नहीं मिलता, कारण कि अपूर्व माहात्म्यरूप परमात्मतत्त्वमें परम प्रेम उत्पन्न नहीं हुआ तो सच्ची एकाग्रता कैसे प्रगटे और उसके बिना सच्ची समाधि कैसे उत्पन्न हो ? प्रथम स्थानका अधिकारी उदय मंत्रीके पुत्र बाहडने पिताकी अधूरी रह गई इच्छाको पूर्ण करने जैनोंके शत्रुंजय तीर्थका पुनरुद्धार कराया था । तीर्थोद्धारका कार्य आरम्भ हुआ तब इस पुण्यकार्यमें भाग लेनेके लिए बहुत-से गृहस्थ आये और कहने लगे कि "मंत्रीजी, हमें भी इस पुण्यकार्यमें यथाशक्ति भाग लेने दीजिए । यद्यपि आप अकेले यह कार्य करनेमें समर्थ हैं, तथापि हमें भी पुण्यकार्य करनेमें कुछ हिस्सा देने दीजिए।” गृहस्थ लोग यथाशक्ति पैसे देने लगे। मंत्रीने उन सबके नाम चिट्ठेमें लिखे। इतनेमें 'भीमो कुलडियो' नामका एक ग़रीब वणिक सात पैसे लेकर आया और बोला, 'मंत्रीजी, मैं ये सात पैसे बड़ी मेहनतसे बचाकर लाया हूँ, विशेष तो मेरे पास कुछ है नहीं। मेरे रोम-रोममें भक्ति उल्लसित हो रही है। मैं जानता हूँ कि इन सात पैसोंका टिप्पणीमें कोई हिसाब नहीं है परन्तु यह अल्प रकम स्वीकारकर मुझे आभारी करें।" जैसा दानी था वैसा ही उसका स्वीकार करनेवाला था । www.jainelibrary.org ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001380
Book TitleCharitrya Suvas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Siddhsen Jain
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size4 MB
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