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चारित्र्य-सुवास
१३ दिन मानसिंह कुम्भनदासके घर आये। भक्तके घरमें तो होवे भी क्या ? भक्तराज तो पानीमें देखकर मस्तक पर तिलक लगाते और खेतमेंसे लाये हुए घासका आसन बनाते। यह देखकर राजा मानसिंहने उन्हें अपना · सुवर्णमय दर्पण दिया।
भक्तने कहा, 'महाराज, मेरी कुटियामें यह नहीं शोभेगा। कोई चोर-डाकू जानेगा तो उसकी दानत बिगड़ेगी। मुझे तो अपनी कुटियामें ही शान्ति है। मुझे इसकी जरूरत नहीं है।'
अन्तमें मानसिंहने कहा, भक्तराज ! यह जमुनावतो गाँव तुम्हारे नाम लिखवा दूं, जिससे तुम्हारी अनाज-उत्पत्तिकी चिन्ता मिट जाय। इस बातको भी जब भक्तने अस्वीकार किया तव मानसिंहजीने जाते-जाते स्वर्णमुद्राओंकी एक थैली रख दी, परन्तु उसे वापस देते हुए भक्तराजने कहा, 'इतने वर्ष जैसे चला वैसे अब भी अवश्य चल जायेगा। आप चिन्ता न करें। उसकी आवश्यकतावाले, राज्यमें बहुत लोग हैं आप उनको दें और उनके दुःख-दर्द दूर करें।..।
ऐसी परम निःस्पृहतासे राजा मानसिंहके रोम-रोममें उस भक्तराजके प्रति श्रद्धाभाव जागृत हुआ। उन्होंने सन्त कुम्भनदासकी चरणरज मस्तक पर चढ़ाकर अपनेको धन्य माना।
आदर्श-वर्तनका प्रभाव
रात्रिका तीसरा पहर था। सब कोई निद्राके आधीन थे। एक घरके अन्दर चुपकेसे चोरने प्रवेश किया। घरका
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