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________________ चारित्र्य सुवास काशीराजसे कोशलराजकी कीर्ति सहन नहीं हुई। उसने कोशल- प्रदेशपर चढ़ाई कर दी। कोशलका राजा जैसा दानवीर था वैसा ही संस्कार और त्यागी भी था। उसे कीर्तिकी कोई अभिलाषा नहीं थी। वह प्रजाकी शान्तिका इच्छुक था । उसने तुरंत निर्णय किया कि बिना किसी दोषके प्रजाका संहार हो इसकी अपेक्षा मैं अकेला इसमेंसे खिसक जाऊँ तो प्रजा बच जायेगी। ऐसा विचारकर आधी रातको छिपे वेशमें वह अदृश्य हो गया। दूसरे दिन कोशलने शरणागति स्वीकार ली । शान्ति हो गयी । काशीराजने कोशलका कार्यभार सँभाल लिया। इतना होते हुए भी गीत तो कोशलराजकी कीर्तिके ही गाये जाते थे। ऐसा देखकर काशीराजने कोशलराजके मस्तकके लिए एक लाख रुपयेका पुरस्कार घोषित किया। कोशलराजका पता नहीं लगा। एक बार एक झोंपड़ीके पास कोई समुद्र- यात्री आया। उसने झोंपड़ीके संन्यासीसे कोशल जानेका मार्ग पूछा। संन्यासीने प्रश्न किया कि उस अभागी नगरीका तुझे क्या काम है ? समुद्र यात्रीने उत्तर दिया कि मेरे जहाज डूब गये हैं। मैं भिखारी हो गया हूँ। एक ही आशा है कि कोशलनरेशके पास जाऊँ। वे दानी हैं। वे ही मेरा सर्व दुःखनिवारण करेंगे। १० संन्यासीने कहा कि चल, मैं तुझे कोशलका मार्ग बताऊँ । आगे संन्यासी और पीछे यात्री, दोनों कोशलकी राजसभामें आ पहुँचे। संन्यासीको राजसभामें देखकर बैठे हुए सभी दरबारियोंके आश्चर्यका पार नहीं रहा । संन्यासी आगे आये और काशीनरेशसे कहा : 'उतार ले यह मस्तक । जिसकी तुझे इच्छा है वही यह कोशलनरेश Jain Education International For Private & Personal Use Only 'www.jainelibrary.org •
SR No.001380
Book TitleCharitrya Suvas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Siddhsen Jain
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size4 MB
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