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________________ ७४ अनेकान्त है तीसरा नेत्र प्रकार की दो धाराएं बन गईं। एक द्रव्यार्थिक नय की धारा और दूसरी पर्यायर्थिक नय की धारा । एक द्रव्य को स्वीकार करने वाली धारा और दूसरी पर्याय को स्वीकार करने वाली धासें । एक तरंगों की व्यवस्था करने वाली धारा और दूसरी तंरगों के नीचे छिपे हुए अतल सागर की व्याख्या करने वाली धारा । दोनों को बांटा नहीं जा सकता। सामने तरंगों का जाल दीखता है। जब सागर में उत्ताल तरंगें होती हैं, वे ही आंखों के सामने आती हैं । समुद्र नीचे छिपा रह जाता है । जिन्होंने केवल सागर को देखा, उन्होंने पर्यायों की व्याख्या की, परिणमनों की व्याख्या की कि सारा संसार बदल रहा है, पैदा हो रहा है। जिन लोगों ने देखा कि यह परिवर्तन सच्चाई नहीं है, सच्चाई तो वह है जो परिवर्तन के नीचे है। उन्होंने मूल द्रव्य को पकड़ा और उसकी व्याख्या की। उन्होंने तरंगों को असत्य मान लिया, मिथ्या मान लिया । तरंगें छुट गईं। दोनों दृष्टियां बंट गई, एकांगी बन गई। पूरा सत्य हाथ नहीं लगा। अनेकान्त तीसरा नेत्र क्यों? अनेकान्त तीसरा नेत्र इसलिए है कि वह न कोरे द्रव्य की व्याख्या करता है और न कोरे पर्याय की व्याख्या करता है। वह दृष्टि न कोरे द्रव्य को ग्रहण करने वाली दृष्टि है और न केवल पर्याय को ग्रहण करने वाली दृष्टि है। वह उभयात्मक दृष्टि है। न वह द्रव्यात्मक है और न पर्यायात्मक, पर है उभयात्मक। यह तीसरी दृष्टि है, इसलिए अनेकान्त तीसरा नेत्र है। तीसरे नेत्र से काम-दहन हमारे शरीर में जो तीसरा नेत्र है, इस पर भी अनेकान्त की दृष्टि से विचार करना होगा। कुछ लोग काम-वासना को परिस्थिति से होने वाली घटना मानते हैं। सामने परिस्थिति होती है, विरोधी लिंग होता है-पुरुष के सामने स्त्री और स्त्री के सामने पुरुष-तब काम की वासना जागती है, काम का प्रवर्तन होता है। यह भी पूरी सच्चाई नहीं है । जब तक हम अनेकान्त-दृष्टि से इस पर विचार न करें तब तक यह बात भी समझ में नहीं आ सकेगी। आज शरीर-शास्त्रियों और यौन-शास्त्रियों ने इस पहलू पर बहुत गहरा चिंतन किया है। इस पर अनेक प्रयोग लिए हैं। उन्होंने जो परीक्षण कर तथ्य प्रस्तुत किए हैं वे उस घटना की सच्चाई को प्रमाणित करते हैं कि शिव ने तीसरे नेत्र के द्वारा काम का दहन किया था। काम-वासना को उत्पत्ति का क्रम हमारे शरीर में दो मुख्य तंत्र हैं— नाड़ी-संस्थान और ग्रन्थि-संस्थान । ग्रन्थि-संस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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