SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा नेत्र (२) तीसरे नेत्र का स्थान एक भाई ने कहा- तीसरा नेत्र हमारी भृकुटियों के मध्य में है। जिस नेत्र के द्वारा शिव ने काम दहन किया था, वह है, तीसरा नेत्र । योग की भाषा में तीसरा नेत्र है आज्ञा चक्र । फिर आप कैसे कहते हैं कि तीसरा नेत्र है- अनेकान्त ? प्रश्न ठीक है। योग में आज्ञाचक्र को तीसरा नेत्र कहा गया है। उसका विकास होने पर काम का दहन भी हो सकता है। शिव ने काम का दहन किया । इसे पौराणिक आख्यान मान लें या योग-साधना का एक रूपक मान लें, किन्तु है यह सच्चाई | जब हम शरीर-शास्त्र, मानस शास्त्र और काम- शास्त्र की दृष्टि से विचार करते हैं तो यह सचाई अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है । इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए भी अनेकान्त का सहारा अपेक्षित होता है। किसी भी सचाई पर विचार करते समय यदि एक ही दृष्टि से विचार करते हैं तो वह सचाई भी झूठ में बदल जाती है। सच्चाई तभी हो सकती है जब हम उसके अनेक पहलुओं पर अनेक दृष्टियों से विचार करें। अनेकान्त तीसरा नेत्र इसलिए है कि वह इन दो नेत्रों से भिन्न है । इन दो नेत्रों से हम स्थूल जगत् को देखते हैं । यदि स्थूल जगत् के आधार पर हमारा सारा व्यवहार होता तो सारा काम व्यवहार नय से चल जाता, स्थूल पर्याय को ग्रहण करने वाली दृष्टि से चल जाता | हमारा जगत् केवल स्थूल ही नहीं है, केवल दृश्य ही नहीं है । हमारा जगत् सूक्ष्म भी है, अदृश्य भी है, अमूर्त भी है । हमारे जीवन की प्रत्येक घटना की व्याख्या यदि हम स्थूल दृष्टि के आधार पर, दृश्य प्रक्रिया के आधार पर करें तो पूरी सच्चाई हस्तगत नहीं होती । अधूरी सच्चाई से समस्या का समाधान नहीं होता । पूरी सच्चाई को पकड़ने के लिए समस्या का समग्र समाधान करने के लिए हमें दोनों जगत् — स्थूल पर्यायों के जगत् और सूक्ष्म पर्यायों के जगत् में प्रवेश करना होगा । यही है अनेकान्त का मूल आधार । द्रव्य और पर्याय कुछ दार्शनिकों ने केवल व्यवहार नय के आधार पर वस्तु - सत्य की मोमांसा की। कुछ दार्शनिकों ने निश्चय नय के आधार पर वस्तु- सत्य की मीमांसा की । इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy