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तीसरा नेत्र (१)
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पिता पुत्री के घर गया । वह अपने दामाद के साथ भोजन करने बैठा। उसकी कन्या भोजन परोसने आई। उसने दोनों की थाली में खिचड़ी परोसी। घी परोसने की बारी आई । उसने सोचा–पिताजी की थाली में घी परोसूं या नहीं। परोसूं तो कितना परोसूं । पति पास में बैठा है । यदि अधिक या कम परोस दिया तो घर में कलह हो जाएगी। पति कुपित हो जाएगा। उसने बाईं आंख से पति की ओर देखा। पिता ने देख लिया। उसने पुत्री से कहा—“बाबा से भी बाईं।"
बाईं आंख में कुछ विशेषता होती है।
जब प्रियता और अप्रियता की आंख बनी रहती है तब क्रोध समाप्त नहीं होता। क्रोध समाप्त होता है तीसरी आंख खुलने पर । तीसरी आंख है समता की
आंख । पदार्थ के प्रति प्रियता का भाव नहीं, किन्तु पदार्थ के प्रति पदार्थ का भाव, यथार्थ का भाव, सच्चाई का भाव। यह है समता । पदार्थ केवल पदार्थ होता है। पदार्थ कोई भी प्रिय नहीं होता और पदार्थ कोई अप्रिय नहीं होता । देश-काल बदलने पर वही अप्रिय लगने लग जाता है। अनेकान्त की दृष्टि से देखा जाए तो कोई भी पदार्थ एकान्तत: प्रिय या अप्रिय नहीं होता। जैसे-जैसे अनेकान्त की दृष्टि विकसित होती है प्रियता और अप्रियता का भाव कम होता जाता है और पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से देखने वाली तीसरी आंख खुल जाती है। साधना का महान् सूत्र-अनेकान्त
अनेकान्त कोई तत्वदर्शन नहीं है। वह हमारा समग्र जीवन-दर्शन है। वह साधना का महान् सूत्र है। जब तक राग और द्वेष कम नहीं होता, प्रियता और अप्रियता का भाव कम नहीं होता तब तक तीसरी आंख नहीं खुलती और अनेकान्त की दृष्टि उपलब्ध नहीं होती। अनेकान्त को उपलब्ध करने के लिए राग और द्वेष को कम करने वाली साधना चाहिए। जैसे-जैसे राग कम होता है, प्रियता का संवेदन कम होता है, जैसे-जैसे द्वेष कम होता है, अप्रियता का संवेदन कम होता है, वैसे-वैसे अनेकान्त का विकास होता है, तीसरी आंख का विकास होता है। सारी दृष्टि बदल जाती है और तब पदार्थ केवल पदार्थ मात्र रह जाता है । वह न प्रिय रहता है और न अप्रिय । जब प्रिय और अप्रिय नहीं रहता तब क्रोध कैसे रहेगा? क्रोध केवल परिस्थिति से ही नहीं आता। व्यक्ति एक को प्रिय मानता है और दूसरे को अप्रिय, तब तक क्रोध समाप्त नहीं होगा। जैसे-जैसे प्रियता और अप्रियता का भाव कम होगा, जितना भी कम होगा, वैसे-वैसे क्रोध उतना ही कम होता जाएगा।
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