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________________ अनेकान्त है तीसरा नेत्र जाओगे। बड़ी अजीब दुनिया है। मैं कुछ सोचता हूं, बोलता हूं, तो दूसरा कहने में नहीं हिचकता कि यह सब मेरी नकल है। स्वतंत्र विचार जैसा कुछ भी नहीं है। अरे, सत्य का ठेका क्या किसी एक व्यक्ति ने ले रखा है ? व्यक्ति में इतना प्रबल अहंकार और इतना बड़ा आग्रह हो जाता है कि सत्य नीचे दब जाता है और उस व्यक्ति का विचार मात्र ऊपर तैरता रहता है। विचार के बंधन से, चिन्तन की कारा से तथा स्मृति, कल्पना और बुद्धि की सीमा से परे जाने का एक मात्र उपाय है-स्यात् शब्द का सहारा । “स्यात्" शब्द अपेक्षा की ओर इंगित करता है। वह कहता है-जो कुछ कहा गया है, कहा जा रहा है उसे अपेक्षा से समझो। अपेक्षा से समझे बिना अर्थ का अनर्थ हो सकता है। आग्रह मत करो। अपेक्षा को समझो कि यह कथन किस अपेक्षा से, किस सन्दर्भ में किया गया है। शब्द की पकड़ खतरा पैदा कर देती है। वह सत्य से दूर ले जाती है । मैं बहुत बार सोचता हूं कि कहीं साधक मेरे शब्द को ही न पकड़ लें। मैं बार-बार कहता हूं-श्वास को देखना आत्मा को देखना है। कोई इस वाक्यांश के सन्दर्भ को समझे बिना पकड़ न ले । अन्यथा बड़ा अनर्थ घटित हो सकता है। अगर शब्द को पकड़ लिया तो साधक श्वास में ही अटक जाएंगे। आगे बढ़ने की गति टूट जाएगी। वे कभी आत्मा तक नहीं पहुंच सकेंगे। मेरा यह कहना कि श्वास को देखना आत्मा को देखना है, असत्य नहीं है। श्वास पौगलिक पदार्थ है, भौतिक है । परन्तु क्या श्वास प्राण नहीं है ? जहां श्वास पौद्गलिक है, पर्याप्ति है, वहां श्वास प्राण भी है। दस प्राणों में एक प्राण है श्वास । प्राण आत्मा कैसे नहीं है ? जो प्राण है वह आत्मा है, आत्मा से जुड़ा हुआ है। यदि अपेक्षा को न समझा जाए तो बहुत अनर्थ हो जाता है। या तो हम इस बात को अस्वीकार कर दें कि श्वास को देखना आत्मा को देखना नहीं है या फिर श्वास को देखना छोड़ दें। श्वास को देखने को छोड़ने का अर्थ है-साधना के प्रथम द्वार में प्रवेश किए बिना ही घर लौट आना। आगे के द्वार बंद ही पड़े रह जाते हैं। आगे का विकास असम्भव हो जाता है और यदि हम श्वास को ही पूर्ण आत्मा मानकर अटक जाते हैं, तो आगे एक कदम भी नहीं रख पाते । वहीं गतिरोध हो जाता है। निरपेक्ष और सापेक्ष हम निरपेक्ष सत्य की बात न करें । सत्य की सापेक्षता को बराबर मानकरचलें कि हमारा कथित सत्य सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। जहां निरपेक्ष सत्य है वहां निरपेक्ष और सापेक्ष की भाषा नहीं होती। वहां भाषा समाप्त हो जाती है। केवल सत्य सत्य रहता है, न निरपेक्ष और न सापेक्ष । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा-जहां वास्तविक सत्य है वहां से भाषा लौट आती है। वहां बुद्धि भी नहीं जाती, चिन्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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