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सापेक्षता
स्वीकृति पहले ही दे देता है कि मैं जो कह रहा हूं उसे पूर्ण सत्य मत मान लेना, उसे निरपेक्ष सत्य मत मान लेना, अखण्ड सत्य मत मान लेना। मैं केवल सत्य के एक पर्याय का, एक अंश का प्रतिपादन कर रहा हूं । तुम्हे केवल एक अंश से परिचित करा रहा हूं। साथ ही साथ मैं पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति में अपनी असमर्थता प्रगट करता हूं। मुझसे पूरा सत्य कहा नहीं जा सकता। तुम्हें सत्य के निकट ले जा रहा हूं। यह है “स्यात्” शब्द की सार्थकता।
एक विद्यार्थी घर पर मां से बोला-मां ! आज मुझे पुरस्कार मिला है । प्रतियोगिता थी। प्रश्न पूछा गया था। मैंने उत्तर दिया। मां ने कहा- तुम्हारा उत्तर सही था, इसीलिए पुरस्कार मिला। धन्यवाद ! साधुवाद ! उसने कहा-मां ! मेरा उत्तर पूर्ण सही नहीं था, किन्तु सत्य के निकट था, इसीलिए पुरस्कार मिला। मेरे साथियों के उत्तर गलत थे। मैं ने पूछा-क्या प्रश्न पूछा गया था? उसने कहा—प्रश्न यह था कि गाय के पैर कितने होते है ? मेरे सब साथियों ने उत्तर दिया कि गाय के दो पैर होते हैं और मेरा उत्तर था—गाय के तीन पैर होते हैं। मेरे साथियों का उत्तर सत्य के निकट नहीं था। मेरा उत्तर सत्य के अधिक निकट था, इसलिए मुझे पुरस्कृत किया गया। _ “स्यात्” शब्द सत्य के निकट ले जाता है, सत्य के साथ जोड़ देता है। उनके द्वारा पूरे सत्य की उपलब्धि तो नहीं होती। पूरा सत्य भाषा के माध्यम से उपलब्ध होता ही नहीं। “स्यात्” शब्द सत्य के परिसर में ले जाता है, इसलिए हम पुरस्कृत भी हो जाते हैं।
सत्य को साक्षात् करने की इससे सुन्दर युक्ति अन्यत्र नहीं मिलती। यदि 'स्यात" जैसा निर्वचन होता तो इतने विवाद कभी नहीं होते, आग्रह नहीं होते। आग्रह बहुत पनपा है। जिसने जो जाना, देखा, आग्रह हो गया कि बस यही सत्य है । मैं जो कहता हूं, वही सत्य है।
राजा की सभा में एक पंडित था । वह बहुत विद्वान, तार्किक और अपनी बात पर अड़ने वाला। कोई भी आता और कहता कि यह सच बात है, पंडित तत्काल उसका खंडन कर देता । एक बार राजा ने कहा-पंडित, तुम बड़े नटखट हो । सबका खंडन कर देते हो ।अच्छा, मेरा यह विचार है, बोलो यह कैसा है? पंडित ने कहा-यह बिल्कुल गलत है क्योंकि यह आपका विचार है, मेरा नहीं। जो मेरा विचार नहीं है, वह सच नहीं हो सकता, गलत ही होगा।
सभी लोग ऐसा ही मानते है। सभी लोगों ने सीमा बनाकर घोषणा कर दी-मेरे विचार में आओ, तुम्हारा कल्याण होगा, स्वर्ग मिलेगा। अन्यथा नरक में
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