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________________ सापेक्षता और मनन भी नहीं जाता। सब लौट आते हैं। वहां पहंच ही नहीं पाते । हमारे सारे विकल्प बुद्धि और भाषा के सहारे चलते हैं । जिस व्यक्ति ने भाषा की नौकरी स्वीकार करली, जिसने बुद्धि, चिन्तन और मनन का दासत्व स्वीकार करलिया, उसने असत्य का दासत्व स्वीकार कर लिया। ____एक दरबारी था बड़ा बुद्धिमान । वह बुद्धि के सहारे आगे बढ़ा और राजा को प्रिय हो गया। एक बार वह राजा के साथ भोजन के लिए बैठा था। रसोइया व्यंजन लेकर आया। उसने व्यंजन परोसा । दरबारी से पूछा-कहो, व्यंजन कैसा बना है ? उसने कहा-बहुत ही स्वादिष्ट । रसोइये ने राजा से कहा-महाराज !आज सारी बुद्धि लगाकर व्यंजन बनाया है। आपको भी स्वादिष्ट लगा होगा? राजा बोला-बहुत खराब। इतना नमक डाल दिया है कि जहर-सा हो गया है। राजा ने दरबारी से पूछा-तुम क्या कहते हो? दरबारी बोला-जैसा आपका अनुभव है वैसा ही मेरा अनुभव है । व्यंजन रद्दी बना है। राजा ने कहा-अभी तो तुमने कहा था कि अच्छा बना है और अबकहतेहोरद्दी बना है ।दो बातें एकसाथकैसे? दरबारी बोला-महाराज ! मैं व्यंजन की नौकरी नहीं करता, आपकी नौकरी करता हूं। यही स्थिति बनती है। जब हम भाषा, बुद्धि और चिन्तन की नौकरी करना प्रारम्भ कर देते हैं तब सत्य के साथ हमारा कोई संबंध ही नहीं रहता। हम सत्य से परे चले जाते है। भाषा की दुनिया में सापेक्षता के बिना सत्य के साथ सम्पर्क करने का कोई उपाय नहीं है । प्रत्येक कथन सापेक्ष होता है । हमें प्रत्येक कथन की सापेक्षता से ही समझना चाहिए। प्रश्न होता है कि ऐसा क्यों समझे? उसका एक बड़ा कारण है। उसका आधारसूत्र है गौण-मुख्य भाव । वस्त-सत्य के दो पर्याय होते हैं। एक है गौण पर्याय और दूसरा है मुख्य पर्याय । एक है व्यक्त पर्याय और दूसरा है अव्यक्त पर्याय। मुख्य एक ही होगा ___ जगत् का बहुत बड़ा नियम है कि मुख्य एक होता है, दो नहीं। जहां मुख्य दो होते हैं, वहां झमेला प्रारम्भ हो जाता है। ईश्वरवादियों ने ईश्वर को स्वीकार किया। उन्हें एक विशेषण लगाना पड़ा—'कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ: ईश्वरः ।' । न्यायशास्त्र ने कहा-ईश्वर को एक क्यों मानें? इसका युक्तिपूर्ण उत्तर देते हुए कहा–यदि ईश्वर को अनेक मान लें तब सृष्टि के आदिकाल में बहुत कठिनाईयां पैदा हो जाएंगी। एक ईश्वर चाहेगा कि सृष्टि ऐसी हो और दूसरा चाहेगा कि अमुक प्रकार की हो। दोनों में विवाद हो जाएगा। सृष्टि फिर बनेगी ही नहीं। जहां अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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