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अनेकान्त है तीसरा नेत्र
'तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं ति मंन्नसि । (जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है।) 'तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्देवेयव्वं ति मनसि।
(जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है।) यह परम सत्य की अनुभूति अनेकान्त के आधार पर हुई है। अनेकान्त को वही स्वीकार कर सकता है जो राग-द्वेष से विमुक्त है । जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की प्रचुरता है वह अनेकान्त को कभी स्वीकार नहीं कर सकता । वास्तव में अनेकान्त ध्यान का दर्शन है, साधना का दर्शन है। जिस व्यक्ति की चेतना निर्मल होती है, राग-द्वेष से विमुक्त होती है उसमें अनेकान्त की दृष्टि जागती है, सत्य की प्रज्ञा जागती है, अन्यथा नहीं। श्वास-दर्शन से आत्मा-दर्शन
प्रेक्षाध्यान पद्धति का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं' आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। उसका पहला चरण है— श्वास-दर्शन । प्रश्न होता है—क्या श्वास आत्मा है? हां, श्वास आत्मा है, शरीर भी आत्मा है, मन और वाणी भी आत्मा है, सूक्ष्म शरीर और कर्म-शरीर भी आत्मा है। इसका कारण है कि ये सब आत्मा से जुड़े हुए हैं। आत्मा की प्रकाश-रश्मियां श्वास तक पहुंचती हैं, शरीर
और सूक्ष्म शरीर तक पहुंचती है, मन और वाणी तक पहुंचती हैं । श्वास प्राणधारा से संचालित होता है। प्राण शक्ति से उसमें चेतना आती है। जो व्यक्ति श्वास की चेतना को नहीं पकड़ पाता, वह आत्मा को कैसे पकड़ पाएगा? जो श्वास के प्रति नहीं जागता, वह आत्मा के प्रति कैसे जाग पाएगा? श्वास चैतन्य का एक हिस्सा है। जो उसके प्रति जाग जाता है, वह आगे बढ़ते-बढ़ते आत्मा तक जाग जाता है। जो श्वास के प्रति नहीं जागता, उसको भीतर जाने का अधिकार नहीं मिल सकता।
हमने अनेक दीवारें खींच रखी हैं। वे सारी टूट जाएं। हमारी दृष्टि बदल जाए तो यह सब संभव है।
दो भाई होते हैं। मकान बड़ा होता है। पहले दोनों में अगाध प्रेम होता है। वह समय निकल जाता है और साथ-साथ प्रेम भी चुकता जाता है। प्रेम का यह स्वभाव है कि वह पहले ज्यादा होता है, और समय बीतने के साथ-साथ कम होता चला जाता है।
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