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समन्वय
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पर हैं अमूर्त । इस दृष्टि से चेतन आत्मा और अचेतन धर्मास्तिकाय समान है। दोनों पुद्गलातीत और अभौतिक है। धर्मास्तिकाय द्रव्य है पर भौतिक नहीं है, अभौतिक है। हम बहुत बार कह देते हैं कि आत्मा अभौतिक है। परन्तु क्या धर्मास्तिकाय अभौतिक नहीं है? दोनों (आत्मा और धर्मास्तिकाय) में बहुत बड़ी समानता है। समानता अधिक है, असमानता कम है । जो स्थूल पर्याय को पकड़ता है वह असमानता को पकड़ लेता है, समानता को छोड़ देता है। इसीलिए विवाद, सम्प्रदायवाद, संघर्ष आदि होते है। स्थूल पर्यायों को पकड़ता है वह असमानता के पकड़ लेता है, समानता को छोड़ देता है। इसीलिए विवाद, सम्प्रदायवाद, संघर्ष आदि होते हैं। स्थूल पर्यायों के आधार पर ये सब घटित होते हैं। बाह्य जगत् में भिन्नता अधिक है, समानता कम और अन्तर जगत् में समानता अधिक है, भिन्नता कम । हम ध्यान के इस उपक्रम के द्वारा यही करना चाहते हैं कि हमारी ऐसी दृष्टि विकसित हो जाए, प्रज्ञा इतनी निर्मल हो जाए कि हम असमानता के नीचे छुपी हुई समानता को देख सकें। ___कबीर का बेटा कमाल घास काटने जंगल में गया। सांझ तक घर नहीं लौटा। कबीर चिन्तित हो गए। वे उसे खोजते-खोजते जंगल में पहुंचे। उन्होंने देखा-कमाल पागल की तरह खड़ा है निष्क्रिय । वह घास को देख रहा है, काट नहीं रहा है। कबीर ने उसे झझकोरा। पूछा-क्या कर रहे हो? सूर्य अस्त हो चुका है। घास काटा ही नहीं। कमाल बोला-किसे कांटू? क्या अपने आपको काटूं? जैसी प्राणधारा मेरे भीतर प्रवाहित हो रही है, वैसी ही प्राणधारा इस घास के भीतर प्रवाहित होते हुए देख रहा हूं। अब कैसे काढू? किसे काटूं? अब कमाल घास नही काट सकता। ___ इस समानता की अनुभूति को भगवान् महावीर ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी—'तुमंसि नाम सच्चेव ज हंतव्वं ति मनसि-पुरुष ! तू जिसे मारना चाहता है, वह तू ही है। इसी सन्दर्भ में समानता ही अनुभूति कि उनके ये वाक्य माननीय
'तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि। (जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है।) 'तुमंसि नाम सच्चेव जं परितावेयव्वं ति मनसि। (जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है।)
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