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________________ १५७ आशावादी दृष्टिकोण भोजन छोड़ना, करना दोनों आवश्यक ___इससे एक नई दृष्टि मिली कि शरीर के दोषों को नष्ट करने के लिये, साधना में विघ्न बनने वाले दोषो को मिटाने के लिये भोजन को छोड़ना जरूरी है तो साधना की यात्रा को चलाने के लिये भोजन करना भी जरूरी है। कोई बीमार है । उसे कहा जाए-भोजन बन्द करो। ठीक है आज का डाक्टर भोजन बन्द करने में विश्वास नहीं करता, किन्तु प्राकृतिक चिकित्सक कहेगा-भोजन बन्द करो। एनिमा लो। शरीर में जमे विषों को निकालो, निकालते चले जाओ। किन्तु यह भी जानता है कि कोरा भोजन बन्द करना पर्याप्त नहीं है। पुनः भोजन कब, कैसे, कैसा देना है यह भी जानना है। यह बराबर देखता है कि व्यक्ति की प्राणशक्ति कमजोर न हो जाए। प्राणशक्ति भोजन से बनी रहती है। दोनों पक्षों का संतुलन अपेक्षित होता है। शरीर के दो पक्ष, मन के दो पक्ष, वचन के दो पक्ष और आहार के दो पक्ष—इसमें सन्तुलन रहे, इनको कभी बिगाड़ा न जाए। सम्यग् ग्रहण ___हम ध्यान के अर्थ को समुचित ढंग से समझें । साधना और अध्यात्म के अर्थ को सम्यग् ग्रहण करें । कभी-कभी ऐसा होता है कि जब दृष्टि स्पष्ट नहीं होती तब अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जिनकी दृष्टि स्पष्ट होती है तो अर्थ और अधिक सार्थक बन जाता है। हमारे सामने यह तथ्य स्पष्ट होना चाहिये। एक घटना है। एक कार्यालय के अफसर ने सोचा कर्मचारी पूरा काम नहीं करते। ऐसा कोई प्रेरणा-सूत्र हो जिससे सबके मन में अपने-अपने कार्य के प्रति निष्ठा जागे और वे सब तत्परता से काम करें। उसके एक सूत्र स्मृतिपटल पर उभर आया। वह सूत्र उसने एक तख्ते पर लिखवा कर मुख्य स्थान पर टांग दिया। वह सूत्र था—'काल करे सो आज कर ।' कर्मचारियों ने उसे पढ़ा। प्रेरणा का उदय हुआ। पहला परिणाम यह आया कि कार्यालय का कैशियर दूसरे ही दिन दस हजार रुपये लेकर फरार हो गया । खोजबीन की गई। पकड़ा गया । अधिकारी ने कहा- तुमने मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात किया? कैशियर बोला-कुछ नहीं, मैं विश्वासघात कैसे करता? आपके वाक्य ने मुझे यह काम करने के लिये प्रेरित किया। अभी मैं ऐसा नहीं करता, दो-दस दिन ठहर जाता, परन्तु 'काल करे सो आज कर' इस वाक्य ने मुझे आज ही कार्य करने की प्रेरणा दी और मैंने यह कार्य सम्पन्न कर दिया। अब मेरे सामने कल करने का मौका ही कहां रहा, मैंने आज निबटा दिया। ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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