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________________ १५८ अनेकान्त है तीसरा नेत्र नाड़ीतंत्र और ग्रंथितंत्र की निर्मलता ___कभी-कभी बड़ा अनर्थ हो जाता है। जिसकी दृष्टि साफ नहीं होती, निर्मल नहीं होती, वह अच्छे तत्त्व को भी विकृत बना देता है। जब तक व्यक्ति का मस्तिष्क स्नायु-संस्थान निर्मल नहीं होता तब तक साधना अच्छी नहीं होती। योगशास्त्र में इस पर बहुत बल दिया गया है कि साधक पहले अपने नाड़ी-संस्थान को दोषमुक्त करे । नाड़ी-संस्थान निर्मल होता है तो प्रज्ञा निर्मल होती है । ज्ञान-तंतु और कर्मतन्तु जितने निर्मल होते हैं उतनी ही ज्ञान और कर्मजाशक्ति बढ़ती चली जाती है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है ग्रंथितंत्र की। हमारा ग्रंथितंत्र जितना निर्मल और पवित्र होता है, उतनी ही हमारी भावना भी निर्मल होती हैं, उतने ही हमारे आवेग और आवेश कम होते हैं। अब नाड़ी-संस्थान का स्थान दसरा हो गया है और ग्रंथितंत्र का स्थान पहला हो गया है। विज्ञान की खोजों ने इस तथ्य को बहुत प्रमाणित कर दिया है कि हमारे जितने भावात्मक तनाव होते है, वे सारे ग्रंथितंत्र के द्वारा पैदा होते हैं । इस वैज्ञानिक बात को कर्मशास्त्र की भाषा में खोजें तो हमें और अधिक सूक्ष्मता में जाना पड़ेगा कि कर्म का जैसा रस होता है, जैसा विपाक होता है, वैसी ही परिणति होती है आदमी में। कर्म-शास्त्र की भाषा में कर्म के रसायन को और शरीर-शास्त्र की भाषा में ग्लैण्ड्स के स्राव को अगर ध्यान के द्वारा बदल दिया जाए तो आदमी अपने आप बदलने लग जाता है, उसकी दृष्टि बदल जाती है। जब दृष्टि बदल जाती है तब अर्थ अधिक सार्थक बन जाता है। नट मंडली के सदस्य अपने करतब दिखा रहे थे। एक नटनी नाचते-नाचते थक गई। पर कोई दान नहीं मिला। उसने अपने पति से कहा-'पतिदेव ! रात बीत रही है । न राजा की ओर से और न जनता की ओर से कोई दान आ रहा है। दानपात्र खाली का खाली है। आप कोई ऐसी ताल बजाओ कि दानपात्र भर जाए। मैं अब थक कर चकनाचूर हो गई हूं।' नटिनी ने संकेत की भाषा में सब कुछ कह दिया। उसी समय पति ने कहा-'मा प्रमादी निशात्यये'-सारी रात तो बीत चुकी है अब सूरज उगने को है। रात बीत जाएगी। तू प्रमाद मत कर । नाच को चालू रख। इस एक वाक्य-'मा प्रमादी निशात्यये'-कमाल कर दिया। अर्थ बहुत सार्थक हो गया। राजकुमार ने अपने गले का हार नट के दानपात्र में डाल दिया। राजकुमारी ने भी हार नट को दे दिया। एक मुनि भी था वहां । वह.उठा और अपनी रत्नकंवल को दानपात्र में रख दिया। राजा यह सब देखता ही रह गया। वह समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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