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अनेकान्त है तीसरा नेत्र
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बिना जीवन चलता नहीं । जीवन चल भी सकता है किन्तु मेधा, बुद्धि और स्मृति का विकास नहीं हो सकता । मधुर भोजन के बिना मेधा का विकास नहीं हो सकता, बुद्धि, स्मृति और धारणा का विकास नहीं हो सकता । शाक्ति का विकास नहीं हो सकता । जिन्हें अज्ञानी का जीवन जीना है, वे मधुर या स्निग्ध भोजन न भी करें, परन्तु जो ज्ञानी का जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें मधुर और स्निग्ध भोजन लेना ही होगा | भगवान् महावीर तपस्या बहुत करते थे । उन तपस्या के दिनों में उनका शरीर सूख गया था । जीवन रूखा-सूखा हो गया था। सूत्रकार बतलाते हैं कि जब भगवान् महावीर ने निरन्तर भोजन लेना प्रारम्भ किया तब उनके शरीर में दीप्ति आ गई ।
दीप्ति और बौद्धिक प्रखरता का कारण
शरीर की दीप्ति या बौद्धिक प्रखरता भोजन पर बहुत कुछ निर्भर करती है । आचार्य ने उस प्रसंग में अनेक वैज्ञानिक तथ्य प्रकट किये हैं । उन्होंने लिखा हैजिस क्षेत्र में स्निग्धता होती है वहां के लोग दीर्घायु होते हैं । जो काल स्निग्ध होता है, उसमें रहने वालों का आयुष्य लम्बा होता है । वे दीर्घायु होते हैं । जो मनुष्य स्निग्ध और मधुर भोजन करते हैं, वे दीर्घायु होते हैं । जिन्हें ऐसा भोजन प्राप्त नहीं होता वे अकाल-मृत्यु के शिकार हो जाते हैं ।
भोजन के प्रति हमारा विचार सन्तुलित होना चाहिये । जो व्यक्ति केवल रूखासूखा खाते हैं, वे बहुत क्रोधी होते हैं । उनकी प्रकृति चिड़चिड़ी हो जाती है । यदि रूखे-सूखे भोजन के साथ-साथ मधुर और स्निग्ध भोजन का सन्तुलन रहता है तो जीवन सुचारू रूप से चल सकता है। प्रत्येक बात पर हमें अनेकान्त की दृष्टि से सोचना होगा । एकांतदृष्टि से किसी भी बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता । शरीर को छोड़ना है तो शरीर को धारण भी करना है। आहार को छोड़ना है तो आहार को चलाना भी है। रूखा-सूखा खाना है, आचमन करना है तो साथ-साथ स्निग्ध और मधुर भोजन का प्रयोग भी करना है। दोनों बातें साथ-साथ चलनी चाहिएं। दोनों चक्के साथ-साथ चलते हैं तब रथ आगे बढ़ता है। एक चक्के से गाड़ी नहीं चलती । इसलिये अनेकान्तवादी सन्तुलन की बात को कभी नहीं छोड़
सकता ।
भगवान् महावीर ध्यान की मुद्रा में खड़े थे। लम्बा समय बीत गया । उन्होंने सोचा- लगता है, अब शरीर साथ नहीं दे रहा है । पारणा करना है तपस्या को तोड़ना है, सम्पन्न करना है ।
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