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आशावादी दृष्टिकोण
होता है इन सबको संचालित करने वाले आहार का ।
भारतीय दर्शन में शरीर के विषय में बहुत कुछ कहा गया है । वह नश्वर है । शरीर के लिए कुछ भी मत करो, यह निराशावादी दृष्टिकोण हो सकता है । एक आदमी सोचेगा— जब शरीर मिला है तो खूब भोग भोगें, खूब खाएं- पीएं, मजा लें, जीवन का आनन्द लें, स्वाद लें । अभी तो कुछ देखा ही नहीं । फिर यह कहना कि शरीर को छोड़ दो, शरीर की सार-संभाल मत करो। कायोत्सर्ग करो, व्युत्सर्ग करो, गरिष्ठ पदार्थ मत खाओ। इसके विपरीत सोचने वाले लोग कहते हैं और इस भाषा में सोचते हैं - हम पैदा क्यों हुए हैं ? न खाएं- पीएं तो इन चीजों का आविष्कार ही क्यों किया गया ?
शरीर के प्रति दो दृष्टिकोण
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भगवान् महावीर ने कहा- “ इमं सरीरं अणिच्च" यह शरीर अनित्य है । यह एक दृष्टिकोण है। दूसरा दृष्टिकोण भी है । अनेकान्त की भाषा में सोचने वाला व्यक्ति किसी बात को एकांगी रूप से स्वीकार नहीं करता। दूसरा दृष्टिकोण है—
" सरीरमाहु नाव त्ति जीवो वुच्चई नाविओ, संसारो अष्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ।”
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भगवान् महावीर ने कहा- शरीर तो नौका है । जब तक तट के पार नहीं चले जाते तब तक शरीर को नहीं छोड़ा जा सकता । छोड़ना भी नहीं चाहिये । इस शरीर से नौका का उपयोग करो । तट के पार जाना है। पार जाने के लिये इस शरीर का पूरा उपयोग करो । आत्मा नाविक और यह शरीर नौका है। शरीर का उचित उपयोग करो ।
भोजन की अनिवार्यता
शरीर को टिकाए रखने के लिये, चलाने के लिए आहार भी देना होगा । बहुत लोग मानते हैं कि जैन दर्शन तपस्या पर अधिक बल देता है। आहार न करने पर अधिक भार देता है । यह भी एकांगी दृष्टिकोण है । शरीर को चलाने के लिये भोजन बहुत आवश्यक है ।
जैनाचार्यो ने बहुत सुन्दर समीक्षा की है इस विषय में । साधु के लिए प्रश्न हुआ कि साधु को साधना करनी है तो वह तपस्या करे भूखा रहे । खाता क्यों है ? यदि खाए बिना जीवन नहीं चलता तो जीवन चलाने के लिये रूखा-सूखा खाए । दूध-घी क्यों खाए ? आचार्य ने उत्तर देते हुए कहा- स्निग्ध और मधुर भोजन के
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