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________________ ११४ · अनेकान्त है तीसरा नेत्र स्व का सीमा-बोध एडिसन महान् वैज्ञानिक था । यह माना जाता है कि उस एक व्यक्ति ने विज्ञान जगत् में बहुत खोजें की हैं। वह स्कूल में पढ़ रहा था। एक दिन अध्यापक ने अभिभावकों के नाम पत्र लिखा। उसमें लिखा था-तुम्हारा बच्चा मंदबुद्धि है। पढ़ने योग्य नहीं है। इसे स्कूल से हटा लो । बच्चे को स्कूल से हटा दिया गया। वही एडिसन विश्व का महान् वैज्ञानिक बन गया। उसका मूल कारण था कि उसके अन्तर् में अनुभव की चेतना जाग गई । वह 'स्व' की सीमा में प्रवेश कर गया। हम 'स्व' की सीमा को समझें । जब व्यक्ति 'स्व' की गहराई में जाता है तब अनुभव की चेतना जागने लगती है और जब अनुभव की चेतना जागती है तब एक विशेष प्रकाश फूटता है। एक ऐसा स्रोत खुलता है जिसमें से सत्य की हजारों रश्मियां निकलती हैं और सारे परिसर को आलोक से भर देती हैं। सारा अंधकार समाप्त हो जाता है । केवल पुस्तकीय ज्ञान पर भरोसा करने वाला, केवल दूसरों पर भरोसा करने वाला, पर की सीमा को महत्त्व देने वाला, स्व की सीमा को न समझने वाला व्यक्ति निरन्तर गिरता ही जाता है। वह कभी ऊंचा नहीं उठ सकता । वह कभी अपने अंधकार को नहीं मिटा पाता। उसकी समस्याएं कभी समाप्त नहीं होती, उलझनें नहीं मिटतीं । बड़ा आश्चर्य होता है कभी-कभी जब सुनता हूं कि हजारों-हजारों व्यक्तियों को प्रतिबोध देने वाला साहित्यकार, सुख और आनन्द देने वाला साहित्यकार, स्वयं दुःखी बन कर आत-जीवन जीता है। दूसरों का मनोरंजन करने वाला स्वयं दुखी मन लिए सोता है, यह कैसा जीवन? हजारों को हंसाने वाला व्यक्ति अपनी पारिवारिक या व्यक्तिगत समस्याओं से आक्रांत होकर, उनकी चिंगारियां से झुलसता जाता है । यह कैसा ढंग ! एक आंख से हंसता है और एक आंख से रोता है । यह स्थिति तब बनती है जब सापेक्षता का मूल्य विपरीत होता है । मैं नहीं कहता कि आप व्यवहार को त्याग दें, परिवार को छोड़ दें, स्थूल पर्याय को छोड़ दें या स्थूल के आधार पर कोई निर्णय न लें, किन्तु यह कहना न्याय-संगत है, कल्याणकारी है कि व्यवहार के साथ-साथ निश्चय की मर्यादा को भी जानकर चलें । व्यवहार के साथ-साथ वस्तु-सत्य को भी स्वीकार कर चलें। दोनों के सम्बन्ध को मानकर चलें। छिलका और गुदा-दोनों उपयोगी हैं। दोनों के सम्बन्ध को मानकर चलें। दोनों को संयुक्त रखकर चलें। फल का सारभाग तब बनता है जब छिलका होता है। यदि छिलका न हो तो फल का सारभाग नहीं बनता। बिना छिलके का फल असंभव है। छिलके को अस्वीकार . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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