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अनेकान्त है तीसरा नेत्र अपनी सभी दुर्बलताओं को छिपाने के लिए मनुष्य के पास एक अमोघशस्त्र है। वह है-परिस्थिति । यह शस्त्र अनुभव से भी बड़ा मान लिया गया है । अणुबम बनाने वालों से भी पूछा जाए कि इतना घातक-संहारक शस्त्र का निर्माण क्यों किया? वे कहेंगे-परिस्थिति से बाध्य होकर हमें ऐसा करना पड़ा है, अन्यथा हम इसका निर्माण नहीं करते।
आज का आदमी परिस्थितिवादी बन गया है। उसने सारा मूल्य परिस्थिति को ही दे डाला है। इसका अर्थ यह हुआ है कि मनुष्य छिलके को अधिक मूल्य देता है, सारभूत पदार्थ को नहीं । छिलका ही उसके लिए सब कुछ हो गया है।
अनेकान्त की दृष्टि से सोचने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि परिस्थिति का कोई मूल्य नहीं है। परिस्थिति का भी मूल्य है। किन्तु छिलके का जितना मूल्य है उतना ही है परिस्थिति का मूल्य । कोई भी समझदार आदमी कोरे छिलके को नहीं खाता, वह सार को ही खाता है । क्या परिस्थिति को ही सब कुछ मानने वाला व्यक्ति, उसकी ओट में अपने आपको छिपा देने वाला व्यक्ति, कोरा छिलका नहीं खा रहा है? वह परिस्थिति को अतिरिक्त मूल्य दे रहा है। उसको इतना मूल्य दे रहा है, जितना मूल्य उसका है नहीं।
परिस्थिति मनुष्य को तभी प्रभावित करती है जब उसमें प्रभावित होने वाले बीज विद्यमान होते हैं। किसी ने गाली दी। क्रोध आ गया। परिस्थिति बनी, क्रोध आ गया। परिस्थिति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किन्तु यह समझ लेना चाहिए कि गाली क्रोध को तभी उत्पन्न करती है जब व्यक्ति में क्रोध के बीज विद्यमान हों। जब क्रोध के बीज समाप्त हो जाते हैं, तब हजार गालियां देने पर भी व्यक्ति में क्रोध उत्पन्न नहीं होता, कभी नहीं होता। ऐसे व्यक्तियों में क्रोध उत्पन्न करना सहज नहीं होता। हजार प्रयत्न करने पर भी उनमें क्रोध उत्पन्न होता ही नहीं। संत एकनाथ की समता
महाराष्ट्र के संत एकनाथ गोदावरी में स्नान करके आ रहे थे। एक आदमी झरोखे में बैठा था। उसने सोचा–संत आ रहे हैं, उनको गुस्से में ले आऊ । ज्योंही संत झरोखे के नीचे आए, उसने ऊपर से थूक दिया। संत के सिर पर थूक पड़ा। वे शुद्धि के लिए पुन: नदी की ओर चल पड़े। स्नान किया और फिर उसी झरोखे के नीचे से गुजरे । उस आदमी ने पुन: थूक दिया। संत पुन: स्नान करने नदी की
ओर मुड़े। बीस बार आदमी ने थूका और बीस बार संत को स्नान करना पड़ा। किन्तु उनके मन में उस व्यक्ति के प्रति तनिक भी क्रोध नहीं आया। व्यक्ति निराश
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