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प्रन्थकार आ० शान्तिसूरिरचित स्वोपजवृत्तिसहित धर्मरत्नप्रकरण भी मिटता है। यह ग्रन्थ वि० सं० १९७० में श्री आत्मानन्द जैनसभा (भावनगर) द्वारा सर्वप्रथम प्रसिद्ध हुआ है। उसका सम्पादन पूज्यपाद प्रवर्तकजी श्रीमत् कान्तिविजयजी म० सा० के शिष्य, आगमप्रभाकर विद्वद्वरेण्य मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी के गुरु तथा मेरे संशोधन-सम्पादन शिक्षा के आधगुरु पूज्यपाद मुनीन्द्र श्री चतुरविजयजी महाराजने किया है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावनामें धर्मरत्नप्रकरण की ३६ वीं गाथा की टीका के अन्त में आया हुआ "संखेवओ भणियमारोग्गदियचरियं । विशेषतः पृथ्वीचन्द्रचरितादवसे यम् ।" यह अवतरण देकर पृथ्वीचन्द्रचरित्रकार और स्वोपज्ञवृत्तिसहित धर्मरत्नप्रकरणकार का ऐक्य बताया है। यहां बताया गया आरोग्यद्विजचरित्र पृथ्वीचन्द्रचरित के पृ० १३३ से १३६ में है। इस प्रस्तावना में आ० श्री शान्तिसूरिजी ने संक्षिप्त और विस्तृत ऐसे दो पृथ्वीचन्द्रचरित बनाये हैं, ऐसा अलग अलग दो अवतरणों को देकर कहा है किन्तु वे दोनों अवतरण प्रस्तुत पृथ्वीचंद्रचरित्र के ही होने से आ० श्री शान्तिसूरि ने एक ही पृथ्वीचन्द्रचरित्र बनाया है यह स्पष्ट होता है। संभव है कि पू० पा० गुरुजी (मुनिवर्य श्री चतुरविजयजी) ने मैने यहां पहले कहा है वैसा किसी विद्वान ने प्राकृत भाषा की दुर्गमता टालने के लिए मंगलाचरण सुभाषितों और प्रशस्ति के प्राकृत पाठ को यथावत् रखकर संस्कृत में तैयार किये हुए पृथ्वीचन्द्रचरित्र की प्रति को देखकर ऐसा विधान किया हो। तथा इस प्रस्तावना में पू०पा० गुरुजी ने ग्रन्थकार आ० श्री शान्तिसूरिबी, आ० श्री नेमिचन्द्रसूरि के ही शिष्य थे ऐसा प्रामाणिक रीति से कहकर मुनिसुन्दररचित पट्टावली में आ० श्री नेमिचन्द्रसूरि के पट्टधर उनके गुरुभाई के शिष्य आ० श्री मुनिचन्द्रसूरि बताये हुए होने से " परं याथातथ्यप्रमाणोपलम्भाभावेन न सम्यग् निर्णय कर्तुं शक्यते । " ऐसा कहा है । इस सम्बन्ध में “ ग्रन्थकार के प्रगुरु आ० श्री सर्वदेवसूरि के शिष्य श्री श्रीचन्द्रसूरिजी ने प्रन्थकार का पक्ष लेकर उनको आचार्यपद दिया था (पृथ्वीचन्द्रचरित पृ० २२२ गा० २८८)" ग्रन्थकार के द्वारा लिखी हुई यह हकीकत ही, श्री मुनिसुन्दरसूरिकृत गुर्वावली में बताई गई हकीकत का समर्थन करती है। इस कारण से मेरा नम्र मत है कि श्री मुनिचन्द्रसूरि के पूर्वपट्टधर और पृथ्वीचन्द्रचरितकार श्री शान्तिसूरि के गुरुवर एक ही ( श्री नेमिचन्द्रसूरि) थे।
इन दो ग्रन्थों के सिवाय ग्रन्थकाररचित अन्य ग्रन्थ मेरे जानने में नहीं आया।
ग्रन्थकार आ० श्री शान्तिसूरि ने सिद्धनाम के श्रेष्ठी द्वारा बंधाए हुए नेमिनाथ भगवान के मन्दिर में अपने आठ प्रधान शिष्यों को आचार्यपद दिया था। इस कारण से उनके शिष्यसमुदाय में उपाध्याय आदि विशिष्ट पदवीधरों एवं मुनियों की संख्या विशाल होगी, ऐसी कल्पना की जा सकती है। उक्त आठ आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं१ महेन्द्रसूरि २ विजयसिंहसूरि ३ देवेन्द्रचन्द्र(देवेन्द्र)सूरि ४ पद्मदेवमूरि ५ पूर्णचन्द्रसूरि ६ जयदेवसूरि ७ हेमप्रभसूरि और ८ जिनेश्वरसूरि ।
प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित की रचना करने के लिए विज्ञप्ति करनेवाले मुनिचन्द्रमुनिद्वारा लिखी हुई पृथ्वीचन्द्रचरित्र की प्रति को प्रशस्ति की रचना को देखने से पता लगता है कि ग्रन्थकार के प्रधान पदवीधर शिष्यों के सिवाय अन्य शिष्यवर्ग भी व्युत्पन्न और विद्यासाधक था । प्रन्थकारने अपने आठ शिष्यों को आचार्यपद देकर उन्हें पिप्पलगच्छ के नायक बनाये थे । अर्थात् स्वयं शान्तिसूरि ने पिप्पलगच्छ की स्थापना की थी। यह बात ग्रन्थकार के द्वितीय शिष्य विजयसिंहसरि की परम्परा के १० वें पट्टधर श्री धर्मप्रभसूरि के किसी शिष्य के द्वारा रची गई गुरुस्तुति में कही है। यह सम्पूर्ण गुरुस्तुति पिन के पांच रिपोर्ट के प्र० १२५ से १२७ में प्रसिद्ध हो चकी है। इस रिपोर्ट के आधार से. प्रसिद्ध जैन विद्वान पं. श्री लालचन्द्र भ० गांधी ने उनके, प्राच्यविद्यामन्दिर वडोदरा से प्रकाशित 'ऐतिहासिक लेख संग्रह ' ग्रन्थ के पृ० .८२ में इस गुरुस्तुति के रचयिता श्री धर्मप्रभसूरि को माना है। किन्तु प्रस्तुत गुरुस्तुति के उपान्त्य पद्य में धर्मप्रभसूरि का
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