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में कर्दमराजे थे अतः इन्हीं से राजगच्छ का प्रारंभ हुआ है ऐसा कहा है । राजगच्छपट्टावली तथा उपर बताये गये धातुप्रतिमालेख में धनेश्वरसूरिको कर्दमराज का पुत्र बताया है। संक्षिप्त में उपर बताई गई परस्पर विसंवादी बातो से यह अनमान किया जा सकता है कि विक्रम की तेरहवीं सदी के अन्त के और उसके बाद के आधारों में बताई गई राजगच्छ क्षेत्रगच्छ आदि की परम्पराओं की कतिपय घटनाएँ निःसंदिग्ध नहीं है। अस्तु
पृथ्वीचन्द्रचरित्रकार ने जिन धनेश्वरसूरि का उल्लेख किया है वे उनके प्रगुरु के शिष्य और चैत्रगच्छ के स्थापक ये वह हकीकत भी उनके अति समीप के समय के ग्रन्थों में मिलती है या नहीं यह अन्वेषण समयाभाव के कारण मैं नहीं कर सका।
ग्रन्थकार के गुरु आ. श्री नेमिचन्द्रसूरिने अपने गुरुभाई श्री विनयचन्द्रोपाध्याय के शिष्य श्री मुनिचन्द्रमुनि को पट्टधर बनाया था। इस वजह से उन्होंने अपने सुयोग्य विद्वान शिष्य की अपेक्षा गुरुभाई के शिष्य की पट्टधर विषयक अधिकतर क्षमता को देखकर अपनी निग्रन्थसमुदायपरम्परागत गच्छनायकत्व की पूरीपूरी जबाबदारी का आदर्श उदाहरण उपस्थित किया था. ऐसा कह सकता हैं। इस प्रकार की घटना का ओर एक उदाहरण मेरे द्वारा लिखी गई 'आख्यानकमणिकोश' की प्रस्तावना में जिज्ञासु वर्ग देख सकते है ( देखिये प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित और पू० पा० आगमप्रभाकरजी मनिवर्य श्री पण्यविजयजी द्वारा सम्पादित सटीक आख्यानकमणिकोश की प्रस्तावना पृ० १३)। इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन समय में श्रीसंघ और श्रमणसमुदाय की सम्पूर्ण जबाबदारी को ध्यान में रखकर गच्छाधिपति आचार्य अपने पट्टधर आचार्य की नियुक्ति करते थे।
ग्रन्थकार आ० श्री शान्तिसूरिजी की गुरुपरम्परा के जिज्ञासुओं के लिए श्री मुनिसुन्दरसूरिकृत गुर्वावली तथा अन्य पट्टावलियो एवं एतविषयक अन्यान्य ग्रन्थों को देखने का सूचन करता है।
१. त्रिभुवनगिरिस्वामी श्रीमान् स कर्दमभूपतिस्तदुपसमभूत् शिष्यः श्रीमद्धनेश्वरसंशया (प्रभावकचरित्रप्रशस्ति)। २. तदनु षट्त्रिंशल्लक्षकन्यकुब्जदेशाधिपतेः कदमराजस्य पुत्रो धनेश्वरकुमारः (राजगच्छपट्टावली पृ० ६६)।
३. बहत वर्षों के पहले पू० पा० आगमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराजजीने पाटन (गुजरात) के शान्तिनाथनी पोल । पराना नाम अदुवसीनो पाडो) के जैन मन्दिर के मूलनायक श्री शान्तिनाथजी की धातुप्रतिमा परसे यह लेख उतारा था, उस समय में भी उनके साथ था इसलिए उन्होंने प्रतिमालेख को नकल मुझे दी थी। यह लेख प्रायः अप्रकाशित होने से पाठकों को जानकारी के लिए अक्षरशः यहाँ देता हूँप्रतिमा का दाया भाग
पंक्ति-१) ॥ अहै नमः ॥ ततोऽभवत् कदमराजसूनुर्द्धनेश्वरः सूरिवरः सुवादी । श्रीचैत्रगरछांयुनि[ पं० २]धेः प्रणेता । टिमेदस्विमदस्य जेता ॥१ श्रीशत्रुजयमाहात्म्यकर्ता । प्रयाति नाम[३] प्रहणेम येषां केषां न दूरे दुरितानि तानि । तपःप्रधाना Hit ते नो भद्राणि भद्रेश्व[४]रसूरिपादाः ॥२ श्रीमन्ने मेरुजयंताद्रिशंगे प्रासादं ये वीक्ष्य जीर्ण विशीर्ण । दंडाधीशं [५] सज्जन बोधयित्वा नव्यं दिव्यं कारयामासुराशु ॥३ नष्ट वस्तु समस्तमप्रतिजवायनाम [4] संप्रापयेत् । स्फूर्जचौरजलानलादिविपदः शाम्यंति यन्नामतः । श्रीभद्राणि महेश्वराख्यगुर[७]वो यन्नामतः संस्तुताः श्रीभद्रेश्वरसूरयस्तनुभृतां ते संतु संतुष्टिदाः ॥ श्री श्री श्रीः ।। प्रतिमा का दाहिना भाग -
1 श्रीधर्मदेवः सुगुरुर्वभूव । भूवालभश्रेणिनता हिपद्मः । अकारि येमात्र विचारहेतु[२]मनीषिणी श्रीकुलकुंडकास्यं ॥५ संवत १५२२ वर्षे वैशाख शुदि । वुधे श्रीमदणहल्लपुरप[३]त्तने श्रीचैत्रगच्छे श्रीभद्रेश्वरसूरिसंताम श्रीपादेवसूरि तपट्टे श्रीमानदेवसरि तपटे ४ श्रीरामदेवसूरि तत्पट्टालंकारगुणनिधान श्रीगुणदेवसूरि तत्प? श्रीविजयदेवसूरि त[५]त्प? श्रीपुण्यदेवसूरि तत्प? श्रीजिनदेवसरि तत्पट्टालंकारश्रीरत्मदेवसूरिणा पूर्व [६] श्रीरैवतकाचलमहातीर्थे श्रीकल्याणत्रयमहाभद्रप्रासादे सप्तधातुमयं श्रीनेमिनाथ सपरिक कारितं अधुमा स्वपुण्यार्थ श्रीशांतिनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठितं । कल्याणमस्तु ।। [4] सर्वपूर्वजश्रेयसे ॥
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