SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ पुहवीचंदचरिए दसमे कुसुमाउह-कुसुमकेउभवे [१०. १६१मणिओ मोहराएण अविवेगो 'अरे ! कहमेए मज न पाइया ? । तेण भणियं 'देव ! सुठ्ठयरमेए पाइया मज्जपरवसा चेव धम्ममुग्धोसिंति, न उण जहट्ठियं धम्मसरुवं जाणंति ति सम्मं परिभावेउ देवो, न ताव एए विवेगगिरिमारूढा, न य चारित्तजणणीणं समिइ-गुतरणं भत्ता, न तदीयं वयसिरिहरं रक्खंति, न य तदीयपसम-संवेग-निव्वेयाइअंत-- रंगपरियणेण सममेएसिं मेत्तीभावो वि दीसइ' त्ति । मोहराएण भणियं 'अरे ! अविवेगो तुमं बुच्चसि ता कहमेवं 5 वियाणेसि ?' । तेण भणियं 'मिच्छादंसगाएसाओ जीवाण हरणत्थं विवेगगिरिं गओ हं, न य तत्थारोहुँ तरामि त्ति कुग्गाहाइभडे पेसिऊण वीसमंतेण मुया मए जिणागमस्स धम्माराहणविहि भणंतस्स केइ पडिसद्दा, तेण एत्तियं वियाणामि, एयम्मि अवसरे कुग्गाहभडेहिं ओयारिया केइ जीवा विवेगपधयाओ, तओ घेत्तूण तुरियं पलाणो म्हि'। पुणो मोहराएण पवुत्तं 'होउ अनेण, कहेहि मे किमेत्य माउच्छारज्जे केइ ममाणाकारिणो संति, न वा?'। पडिवुत्तमविवेगेण - 10 'सव्वे वि जणा तुह देव ! किंकरा जे विवेगगिरिहेट्ठा । उवरिं पि केइ विरला तुहाणुवित्ति नहि कुणंति'॥१६१॥ इय निसुणंतो गहिओ अत्तुकरिसेण मोहमहराया । सविसेसं तम्मि पुरे उद्दामं रमिउमारद्धो ।। १६२ ।। कयबहिरंगावेसो गायइ वायइ य नच्चई हसई । कलहइ हणइ पलोट्टइ रमेइ रामइ विरमई य ॥ १६३ ।। सोयइ केंदइ विलबइ बीहइ बीहावई रुयइ सुबई । मुच्छागो व चिट्ठइ मुइरं अनेसु पत्तेसु ॥ १६४ ॥ आलिंगणमसुइकलेवराणमवरोप्परं विगयलज्जो । कारेइ मुकवत्थी छन्नं पयडं च लोयाणं ॥ १६५ ॥ 15 चुम्बइ असुइमुहाई कारेड् अणेगकवडचाणि । अनेमु कयावेसो जुबईणं पडइ पाएमु ॥ १६६ ॥ आवेसिऊण कोहाइणो भडे कुणइ भीमसंगामे । पहरइ पडिपहरंतो मारइ मरइ य खणरेण ॥ १६७ ॥ भोगंगदाण-पोसण-पालणओ किंकरत्तपत्तो वि । उन्बहइ पहुत्तमयं बहूण बहिरंगलोयाण ॥ १६८ ॥ 'अइपरिओसरसाओ सहिओ भाईहिं सपरिवारेहिं । वियरइ नवरसरम्मं नहूँ जणयस्स दावितो ॥ १६९ ॥ [कम्मपरिणामस्वयं समत्तं. ११] 20 एवं च ठिए बुज्झह निहया सव्वे वि पाणिणो तेण । विजिया य पगाम लोभवेरिणा दुज्जयबलेण ॥ १७० ॥ धरिया य वसे निचं मोहकुलुत्थेण इंदियगणेण । ते हणह जिणह धरह य वसम्मि सोक्खाणि जइ महह ॥१७॥ परमं पि रणं तं चिय मारिजइ नाबरो जहिं जीयो । सो पुण सुसंजमो चिय विजई रागाइवेरीणं ॥ १७२॥ रइ-अरइविप्पमुक्के रइरसरहिए हिए हियत्थीणं । एगंतसुहसरूवे रई वि तत्थेव खलु जुत्ता ।। १७३ ॥ इय भो महाणुभावा ! मा मोहविडंवणं मुहा सहह । आरुहह विवेगगिरि चारितं सरणमल्लियह" ॥ १७४ ॥ ___ अह रायसेहरो रइयसेहरो करयलेहिं दोहिं पि । सह माणतुंगरम्ना पमोयरोमंचिओ आह ॥ १७५ ॥ 'भय ! नजइ दिनो धम्माइटेण बोहदूएण । अम्ह सुदंसणचुम्नो सक्खं पिव लक्खिमो जेण ॥ १७६ ।। माइंदयालसरिसं विरामविरसं असासयमसारं । संसारमुहं सयलं एगंतविडंबणारूवं ॥ १७७ ॥ मोहंधो एस जिओ विनडिज्जतो वि दड्ढमोहेण । मिच्छाभिनिवेसहओ हिया-ऽहियं नो वियाणाइ ॥ १७८ ॥ ता इच्छामो हच्छं हाउं गेहं दुहोहपडहच्छं । मोहवलदलणदच्छं चरिउं चरणं च सइ पच्छे ॥ १७९ ॥ 30 तो केवलिणा वुत्तं 'समुहं कल्लाणमज्ज संवुत्तं । तुम्हाण जेण चित्तं जायं एगंतसुपवित्तं ॥ १८० ।। तो मा करेह विग्धं साहिज्जउ नियसमीहियं सिग्धं । चवलो करणग्गामो, दुलहो चारित्तपरिणामो' ॥१८१॥ तो तेहिं जओ भणिओ 'पडिवजसु अम्ह संतिए रज्जे । अम्हे उ उज्जमामो सम्मं परलोगहियकज्जे ॥१८२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy