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________________ “ गंथसिलोयपमाणं सत्त सहस्साई पंच य सयाई । इय पुहइचंदचरिए विणिच्छियं पायसो गणिउं ॥ अंकतोऽपि ७५०० ॥ श्रीः ॥ संवत् १५१२ वर्षे । पक्षेन्द्विन्द्रियचन्द्रवत्सरमिते श्रीचित्रकूटाचले, पुण्ये भाद्रपदे कुजस्य दिवसे शुद्धे नवम्यां तिथौ । पृथ्वीचन्द्रचरित्रमेतदखिलं पूर्ण यथार्थं मुदा, हर्षाद् हेमसमुद्रसूरिगुरुणा संलेखयामास च ॥ १ ॥ भद्रं श्री नागपुरीयमुनीश्वराणां । कल्याणमस्तु श्री पार्श्वप्रसादात् ॥ अर्थात् वि० सं० १५१२ के भाद्रपद शुक्ला ९ मंगलवार के दिन पृथ्वीचन्द्र चरित्र की यह प्रति आ० श्री हेमसमुद्रसूरि ने चित्तौड़ दुर्ग में लिखाई है । उपर की प्रशस्ति के बाद इस प्रति में श्रीरत्नप्रभसूरिविरचित' पृथ्वीचन्द्र चरित्रसंकेत' लिखा है । पत्र के दूसरे पृष्ठ की १८ वीं पंक्ति से 'संकेत ' का प्रारंभ होता है और ९९ वें पत्र के दूसरे पृष्ठ की पूर्ण होता है । 'संकेत' पूर्ण होने के बाद प्रति के लेखक ने इस प्रकार लिखा है “ सर्वांकप्रमाणं ॥ ८००० [ख]र्खेद्रियाव्त्रिसंख्य लोकैः ॥ छ ॥ श्रीः ॥ शशिनचरित्रे || " प्रति के ९४ वें ग्यारहवीं पंक्ति में स्व-स्व-इन्द्रिय-अब्धि अर्थात् पृथ्वीचन्द्रचरित्र मूलप्रन्थ के ७५०० श्लोक के साथ 'संकेत' के श्लोकों को मिलाने पर उसकी संख्या ८००० होती है। इससे पृथ्वीचन्द्र चरित्रसंकेत का श्लोकप्रमाण ५०० है । यह स्पष्ट होता है । अष्टौ सहस्रांकमिते समस्ते ग्रन्येऽत्र पृथ्वी आ० श्री रत्नप्रभसूरिकृत पृथ्वीचन्द्रचरित्रसंकेत की प्रति मयावधि अनुपलब्ध थी। हां, बृहत् टिप्पनिका में इसका निर्देश हुआ है । पृथ्वीचन्द्रचरित्र के पाठकों को एवं प्राकृतभाषा के अभ्यासियों को अच्छी तरह से उपयोगी हो सके ऐसी यह छोटी सी कृति प्राप्त हुई है यह आनन्द का विषय है । इसीसे ही 'भ्रा०' संज्ञक प्रति का विशेष प्राधान्य हैं । इस प्रति में भी अनेक स्थलों में मूग्रन्थ के क्लिष्ट शब्दों पर अर्थदर्शक टिप्पणियां लिखी हुई हैं । संशोधन इस ग्रन्थ के सम्पादकजी ने उपर्युक्त चार प्रतियों में से 'जे० ' संज्ञक प्रति के उपर से 'पुहइचंदचरिय' की मुद्रणार्ह कापी की थी । अतः प्राकृत शब्दों में आने वाले ह-भ, क-ग-य और त-द-य-अ आदि वर्गों को 'जे० ' संज्ञक प्रति के ही स्वीकृत कीये है | जहाँ जहाँ 'जे० ' प्रति के पाठ की अपेक्षा प्रत्यन्तर के पाठ अधिक उपयोगी लगे हैं वहाँ वहाँ 'जे० ' प्रति के पाठको नीचे टिप्पणी में रखकर प्रत्यन्तर के पाठ को मूल में स्वीकृत किये हैं। ऐसे मूल में स्वीकृत प्रत्यन्तर के पाठ प्रायः 'खं १' प्रति के हैं । Jain Education International उपरोक्त चारों प्रतियों में कठिन शब्द के अर्थ को बताने वाली जो टिप्पणियाँ हैं उनमें जो जो टिप्पणियां उपयोगी लगी हैं उन्हें यथास्थान पर उन उन प्रतियों की संज्ञा के साथ नीचे लीख दी है। जिन टिप्पणियों का अर्थ 'संकेत' में ही स्पष्ट हो जाता है उन टिप्पणियों को छोड़ दिया गया है । क्यों कि अर्थ की दृष्टि से इसका कोई महत्व नहीं था । 'जे० ' संज्ञक प्रति की टिप्पणियों में कहीं २ ग्रन्थान्तर के अवतरण देकर मूल के वक्तव्य को अधिक स्पष्ट किया है इस कारण से इस प्रति की टिप्पणियों का प्राधान्य और भी बढ जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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