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.२०. माता का वसु के पास गमन, वरदान याचना और पर्वत के पक्ष में निर्णय का
वचन लेना। २१. वसु का असत्य जानते हुए भी पर्वत के पक्ष में निर्णय । सिंहासन से वसु का
पतन । पुनः असत्य का समर्थन व भूमि प्रवेश । तीसरी बार असत्य भाषण से मरण और नरक-प्रवेश ।
संधि-३१ कडवक १. पर्वत का निर्वासन । हस्तिनापुर के राजा सुयोधन वा रानी अतिथि की पुत्री
सुलसा का वाग्दान पोदन के सुपिंग नरेश के राजपुत्र मधुपिंगल को। २. अयोध्या के राजा वसुराय के पुत्र सागर का सुलसा पर मोहित होना व इसके
लिये मंत्री द्वारा जाली सामुद्रिक शास्त्र रचकर परिवाजिका द्वारा सुलसा के
मागे पढ़ा जाना। ३. पुरुष के शुभ लक्षण-सगर सदृश । ४. पुरुष के अशुभ लक्षण-मधुपिंगल सदृश । ५. परिव्राजिका द्वारा सगर की प्रशंसा, सुलसा का मोह और स्वयंवर का सुझाव । ६. सुलसा का स्वयंवर और सगर के गले में वरमाला । ७. सुलसा का विवाह और मधुपिंगल का वैराग्य । एक बार पारणा के लिये
अयोध्या में सागरदत्त श्रेष्ठी के यहां पाना, विप्र द्वारा उनके लक्षण देखकर अपने सामुद्रिक शास्त्र को जला डालने का विचार, तथा सेठानी द्वारा पूर्व वृत्तान्त निवेदन। वृत्तान्त सुनकर मधुपिंगल मुनि का क्रोध व निदानवश असुर जन्म तथा ब्रह्मा का रूप धारण कर पर्वत से मेल । ब्रह्मरूप धारी असुर का अजयज्ञ से छाग-बलि के अर्थ का समर्थन व सगर के समीप आगमन । यज्ञविधान और सगर सहित सबकी अपनी अपनी आहूति । इस प्रकार बदला लेकर प्रसुर का गमन ।
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संधि-३२
कडवक
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१. धनहानि से व्याकुल और धन के मेल से स्वस्थ होने वाले समुद्रदत्त वणिक
का दृष्टांत । २. परद्रव्यहारी श्रीभूति का आख्यान । जम्बूदीप, पश्चिम विदेह, गंधमाल विषय,
वीतशोक नगर का राजा वैजयन्त और रानी सत्यवती । पुत्र संजयन्त और जयन्त । स्वयंभू तीर्थकर का आगमन और वैजयन्त नरेश की पुत्रों सहित दीक्षा । वैजयन्त के केवली होने पर धरणेन्द्र का आगमन और उसके रूप से मोहित होकर जयन्त का निदान-बंध और मरकर धरणेन्द्र उत्पत्ति । .
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