SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ १२. नागश्री की कथा-काशी देश, वाराणसी पुर, जितारि नरेश की मुंडिका पुत्री। ऋषभश्री आर्यिका द्वारा संबोधन से मृत्तिका खाने का त्याग । अपूर्व सौन्दर्य की प्राप्ति । औड्रनरेश भवदत्त द्वारा पुरनिरोध । राजा की पलायन की इच्छा, किन्तु मुंडिका का अस्वीकार । पुरोहित द्वारा प्रातिहार्य की भविष्यवाणी। राजा का पलायन । शत्रु का पुर प्रवेश । कन्या का गंगाद्रह में प्रवेश । व्रत-माहात्म्य से रत्नमयी गृह । प्रवेश करते हुए शत्रु का पुरदेवी द्वारा स्तंभन । क्षमायाचना । देवों द्वारा पूजा। सबकी धर्मरुचि । मुंडिका की दीक्षा । नागश्री की दृढ़ता का यही कारण । २८४ २८६ २८६ २८७ २८७ २८७ संधि-२७ कड़वक १. पद्मलता की कथा-अंग जनपद, चंपापुरी, धाड़ीवाहन राजा, ऋषभदास वणिक, पद्मश्री पुत्री। दूसरा वणिक् बुद्धदास, पुत्र बुद्धसंघ । उसके द्वारा पद्मश्री का दर्शन व मोह । माता का प्रश्न । २. पद्मश्री से विवाह की आकांक्षा। पिता की चिन्ता । अन्य उपाय न देख श्रावक बनने का प्रपंच । ३. सहधर्मी होने से दोनों वणि कों में स्नेह । ऋषभदास द्वारा भोजन का निमंत्रण । विवाह का प्रस्ताव । ऋषभदास की स्वीकृति । ४. बुद्धसंघ का पद्मश्री से विवाह । पुनः धर्मपरिवर्तन और विवाद । ऋषभदास की मृत्यु। ५. बुद्धगुरु का कथन कि ऋषभदास मरकर हरिण हुआ । पद्मश्री द्वारा बौद्ध गुरुत्रों को निमंत्रण व उनके अदृश्य ज्ञान की परीक्षा । ६. बौद्ध गुरुत्रों का पराजय । सेठ से शिकायत । पुत्र व पुत्रवधू का निर्वासन । सार्थों से मेल । सविषनिशि भोजन कर सार्थ व बुद्धसंघ की मृत्यु । ७. प्रातः पिता का आगमन व पद्मश्री पर दोषारोपण । बुद्धसंघ का पुनर्जीवन । ८. सबके द्वारा धर्म की प्रशंसा व श्रावक-व्रत-ग्रहण । पद्मलता के दृढ़ सम्यक्त्व का यही कारण । ६. कनकलता की कथा-अवन्ती देश, उज्जयिनी नगरी, समुद्रदत्त वणिक्, पुत्र उमक । वह व्यसनी । राजा की शिकायत । माता पिता द्वारा निर्वासन । १०. सार्थवाह पुत्र के साथ कोशाम्बी गमन । भगिनी द्वारा उपेक्षा । मुनि के समीप श्रावक-व्रत तथा अज्ञात फल न खाने का व्रत-ग्रहण । भगिनी द्वारा सम्मान । सार्थ के साथ स्वदेश गमन । वन में मार्ग भ्रष्ट । ११. क्षुधावश सार्थ द्वारा किंपाक फल भक्षण व मरण । उमक का अज्ञात फल जानकर निषेध । वनदेवी द्वारा परीक्षा । १२. देवी द्वारा उमक को फल खाने का प्रलोभन । उमक की निष्ठा से प्रसन्न होकर वरदान । २८८ २८८ २८९ २८६ २८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy