SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७७ २०. कुट्टिनी द्वारा कलश में सर्प प्रदर्शन । सोमा के ग्रहण से पुनः पुष्पमाला। २१. सोमा के स्पर्श से कामलता का पुनर्जीवन । राजा के प्रश्न पर वसुमित्रा कुट्टिनी द्वारा सत्य कथन । पृथ्वी और आकाश में सोमा की प्रशंसा व पुष्टि । राजा का वैराग्य व तपग्रहण । सबका धर्म-ग्रहण । सोमा की दीक्षा । रुद्रदत्त, कुट्टिनी व कामलता द्वारा श्रावक-व्रत ग्रहण । खंडश्री की सम्यक्त्व में दृढ़ता। २७७ संधि-२६ कडवक पृष्ठ १. विष्णुश्री का कथानक-वत्सदेश, कोशाम्बीपुर, विष्णुश्री राजा, अजितांग, सोमश्री। महन्त, समाधिगुप्त साधु का आगमन । पाहारदान, रत्न-वृष्टि आदि पंचाश्चर्य । २७६ २. मंत्री का कौतुक व चिन्ता । मुनि से प्रश्न । उत्तर-सुपात्रदान से ही प्राश्चर्य संभव। २७६ ३. मंत्री के प्रश्न पर मुनि द्वारा पूर्व उदाहरण । वेन्नातट नगर, सोमप्रभ नरेश । सुवर्णदान । विश्वभूति द्विज का कपोतवृत्ति से यव-संचय, सत्तू के चार पिंड । एक से अग्नि-आहुति, दूसरे के लिये अतिथि की प्रतीक्षा । मुनि प्रागमन । २८० ४. अतिथि पिंड के अतिरिक्त अपने व पत्नी के पिंड का भी दान । पंचाश्चर्य। अन्य - द्विजों ने उसे राजा के सुवर्णदान का फल माना। राजा सहित प्रागमन । २८० ५. रत्नों को ग्रहण करने पर वे कोयला हो गये । नकुल द्विज द्वारा निवारण । राजा का आधा यज्ञफल देकर, भिक्षार्ध-फल लेने का प्रस्ताव । विश्वभूति का अस्वीकार । दोनों में सुमेरु और सर्षप का अन्तर । २८१ पोषषदान का माहात्म्य-द्वारावती में वासुदेव गोविन्द ने मुनि को औषधदान देकर देवों द्वारा पूजा व भावी तीर्थंकरत्व प्राप्त किया। २८१ अभयदान का माहात्म्य-मेरु प्रमाण सुवर्णदान व समस्त पृथ्वी के दान से भी अधिक फलदायी एक जीव की प्राण रक्षा। वाराणसी का दृढ़चित सुसुमार हृद में बांधकर डाला गया । किन्तु देवों ने रक्षा और पूजा की । उज्जयिनी के भवदेव धीवर ने मुनि उपदेश से एक मछली को चार बार छोड़ा, जिससे वह चार आपत्तियों से बचाव मरकर राजपूत्र हमा। शास्त्रदान का माहात्म्य-खंडश्लोक के फल से गरुड़ द्वारा सर्प व गुरु मानकर जयकार। एकाक्षर दाता को भी गुरु मानने वाले की दुर्गति । ९. मुनि के उपदेश से मंत्री का श्रावक-व्रत-ग्रहण । मंत्री के विरुद्ध राजा से शिकायत । राजा का छल से अपने व सभी सामन्तों के कृपाणों का निरीक्षण । १०. मंत्री द्वारा परमात्मा का स्मरण कर अपने काष्ठमय कृपाण को देना व उसका . सूरहास खड्ग में परिवर्तित हो जाना । राजा द्वारा पिशुनों की ओर तीक्ष्ण दृष्टि । सोमश्री द्वारा उनकी बात का समर्थन व अपनी अहिंसात्मक प्रतिज्ञा व का निवेदन। २८३ ११. सबकी प्रशंसा। देवों द्वारा साधुकार व पुष्पवृष्टि । राजा द्वारा पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण । सबकी धार्मिक श्रद्धा विष्णुश्री के दृढ़ सम्यक्त्व का यही कारण। २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy