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________________ २६१ ५. जिनालय में जागरण किया जाय। मंदिर गमन सेठ का पत्नियों से प्रश्न तुम्हारा सम्यक्त्व कैसे दृढ़ हुप्रा ? पत्नियों की पहले सेठ का ही वृत्तान्त सुनने की इच्छा । सेठ का प्रात्म-वृत्तान्त । उदितोदित राजा, बुद्धिमान मंत्री, सुप्रभा रानी, सुबुद्धि पुत्र, रूप्यखुर चोर का पुत्र सुवर्णखुर । जिनदत्त सेठ, जिनमती सेठानी। २६१ ७. उन्हीं का पुत्र मैं अहदास । रूप्यखुर द्वारा चोरी व दान । अंजन लगाकर राजा के साथ प्रतिदिन भोजन । राजा दुर्बल । मंत्रियों द्वारा कारण का प्रश्न । २६२ ८. राजा का उत्तर-चौगुना जीमने पर भी अघाता नहीं। मंत्री द्वारा अंजन चोर का सन्देह व पकड़ने की योजना । भोजनशाला में धुएं से भरे घटों की स्थापना व प्रच्छन्न भटों की नियुक्ति । १६२ ६. अर्क कलियों के फूटने से अंजन चोर के आगमन की सूचना । द्वार बंद । धुओं छोड़ा गया। चोर की आँखों से आंसू पाये। मंजन नष्ट । देखकर भटों द्वारा बंधन । राजा द्वारा शूली का दंड। जिससे वह बोले, जान लो उसी के पास सब चोरी का द्रव्य । रक्षकों की नियुक्ति। जिनदत्त का प्रागमन व पूर्वोक्त पानी पिलाने की चोर की प्रार्थना। २६३ १०. जिनदत्त द्वारा नमोकारमंत्र-दान आदि का पूर्वोक्त वृत्तान्त चोर के मरण पर्यन्त । २६३ ११. चोर के देव होने से लेकर राजा के किंकरों के मार भगाने तक का पूर्वोक्त वृत्तान्त । २६३ १२. राजा के स्वयं पाने से लेकर उसके भागने व देव द्वारा पीछा किये जाने का वृत्तान्त । २६४ १३. राजा द्वारा जिनदत्त की शरण लेना । जिनदत्त द्वारा राजा की मुक्ति । देव का माया छोड़ स्वस्वरूप प्रदर्शन । २६४ १४. देव का आत्मनिवेदन व राजा व सेठ प्रादि का तपग्रहण । २६५ १५. अर्हद्दास का पत्नियों से कथन कि नमोकार मंत्र के इसी प्रभाव को देखकर उसका सम्यक्त्व दृढ़ हुआ। अन्य पत्नियों द्वारा समर्थन, किन्तु कुन्दलता की अप्रतीति । १६. इस कथानक की तथा कुन्दलता के अविश्वास की राजा और चोर के मन पर प्रतिक्रिया। २६५ - ८ पृष्ठ संधि-२५ कडवक १. जिनदत्त की प्रथम पत्नी मित्रश्री का आत्मनिवेदन । राजगृह पुरी, राजा संग्रामसूर, रानी कनकमाला, वणिक् ऋषभदास, भार्या जिनदत्ता वंध्या । २. भार्या का प्राग्रह व अपनी छोटी बहिन कनकश्री से विवाह । माता बंधुश्री का प्रागमन, सुख संबंधी प्रश्न । कनकश्री का उत्तर-सौत के होते हुए सुख कहाँ । ३. दोनों के जिनमंदिर में रहकर रति सुख भोगने का तथा अपने प्रति पति की उपेक्षा का दोषारोपण । माता का रोष व विवाह प्रसंग पर ली गयी शपथ भंग का दोषारोपण । २६७ २६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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