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________________ । ४४ ) १२६ १३० १३० हुआ। कोई अन्य भी ऐसा धर्मोपदेशक है, ऐसा पूछने पर साधु ने कहा, चम्पापुर में वासुपूज्य तीर्थंकर हैं, जिनकी वाणी त्रिभुवन पूज्य है । पद्मरथ ससैन्य वासुपूज्य तीर्थंकर की वन्दना को चला। उसकी परीक्षा निमित्त अमितप्रभ और विद्युत्प्रभ देवों का आगमन । पहले उन्होंने यमदग्नि को अपने संयम से चलायमान किया। फिर जैनधर्मानुराग की परीक्षा करनी चाही। ६. विद्युत्प्रभ ने मिथिला नगर का दाह व घरद्वारों का ध्वंस आदि मायाजाल दिखलाया। फिर भी पद्मरथ नहीं लौटा । देव द्वारा प्रशंसा । राजा द्वारा तीर्थकर की वन्दना । मुनि-दीक्षा, गणधर पद व मोक्ष प्राप्ति । दर्शनभ्रंश पर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का पाख्यान : अरिष्ट नेमि का तीर्थ, काम्पिल्य पुरी, राजा ब्रह्मरथ, महादेवी सोमिल्ला, पुत्र ब्रह्मदत्त बारहवां चक्रवर्ती, चक्रवर्ती विभूति । तप्त खीर से दग्ध । रसोइये पर रोष । उबलती खीर से उसका स्नान । मरकर लवण समुद्र में राक्षस । पूर्व वैर स्मरण । वैष्णव के वेष में फल लेकर आगमन । राजा का फल भक्षण और प्रश्न । अपने आश्रम में उनके प्राचुर्य का कथन । राजा का समुद्र के बीच प्राश्रम को गमन । उपसर्ग व पूर्व वैर को स्मरण कराना । राजा मंत्री, व सामन्त पाहार-त्याग कर सन्यास में स्थित ।। १२. नवकारमंत्र स्मरण के कारण राक्षस राजा को मारने में असमर्थ । राक्षस का प्रस्ताव--यदि जैन धर्म त्याग कर पंचाक्षर मंत्र को पैर से पोंछ दे तो अभयदान । भयभीत होकर राजा के वैसा करने पर राक्षस द्वारा घात व रसातल के बड़वानल में प्रक्षेप व सप्तम नरक गमन । १३. दर्शन में दृढ़ता पर जिनदास का आख्यान । पाटलिपुर, जिनदास वणिक जिनभक्त । वाणिज्य निमित्त भांड लेकर कंचनद्वीप गमन । द्रव्योपार्जन कर लौटते समय पूर्व वैरी कालियदेह द्वारा प्रचंड वायु एवं सधन बादल निर्माण व यह कथन कि जीवन चाहो तो जैनधर्म छोड़ो। जिनदास की निश्चलता। जिनदास की धर्मनिष्ठा से अणावि यक्ष का प्रासन कंपायमान । यक्ष के द्वारा शत्रु के सिर पर प्रहार व वड़वामुख में क्षेपण । वरुण देव द्वारा वणिक के पोत की रक्षा। लक्ष्मी का कलश लेकर प्रागमन। देवों द्वारा सम्मान । घर आकर सेठ का मुनिराज से उपसर्गकारी के विषय में प्रश्न । १५. मुनि का कथन । हस्तिनापुर में अग्निभूति विप्र। उसका वाद में तुम्हारे द्वारा पराजय । राजा द्वारा निष्कासन । अपमान का रोष । कालियदेह राक्षस के रूप में जन्म । पूर्व वैर स्मरण कर उपसर्ग । मुनि का यह कथन सुनकर सबकी धर्म में रुचि । जिनदास की प्रव्रज्या। दर्शन का पालन न करने का रुद्रदत्त का पाल्यान । लाट देश, द्रोणिमान पर्वत के समीप गोद्रहपुरी, जिनदत्त वणिक, पत्नी जिनदत्ता, पुत्री जिनमती । दूसरा वणिक् नागदत्त परम माहेश्वर, पुत्र रुद्रदत्त। उसके विवाह हेतु जिनमती की मांग। धर्म भेद होने के कारण जिनदत्त द्वारा प्रस्ताव अस्वीकार ।। १३२ १४. १३२ १३३ १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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