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४१८ ] सिरिचंदविरइयउ
[ ४२. ७. ७महु गुरु बंभलोउ संपत्तउ
अच्छइ दिव्वभोय भुजंतउ । मुणिणा भणिउ अहित्तणु पत्तउ
तुह गुरु एत्थ कट्ठि डझंतउ । अच्छइ अंतरि किं महु जोयहि
जइ संसउ तो किं न पलोयहि । ता कोवेण तेण पजलंतें
लेवि कुढारिय कठ्ठ तुरंतें । १० फाडिउ दिठ्ठ भुयंगु जलंतउ
गउ वइरायो विभियचित्तउ । घत्ता-धन्नउ जिणवरधम्मु पर जत्थेवंविहु अत्थि विणिच्छउ ।
अन्नाणिउ तावसह तउ डज्झउ संजमसारे तुच्छउ ।।७।।
एम भणेप्पिणु
मुणि पणवेप्पिणु । धम्म सुणेप्पिण
कुमउ मुएप्पिणु । पालियनिट्ठउ
तवसि वसिट्ठउ । दुक्कियसंवरु
हूउ दियंबरु । नियतणु तावइ
भिक्ख न पावइ। वारियसम्में
चिरकयकम्में । सहियालाहउ
खंतिसणाहउ । पढउँ निरंतर
करिवि मिसंतरु। सिरिसिवगुत्तो
मुणिहि तिगुत्तहो । सो गुणगुरुणा
अप्पिउ गुरुणा। तेण वि पोसेवि
समउ पयासिवि। छम्मासहिँ पुणु
परियाणियगुणु । तहो जि समप्पिउ
गुरुहि समप्पिउ । पुन्नविहीणउ
भुक्खा खीणउ। तेण वि तरिसहो
अधुसहरिसहो । कहमवि पालिउ
पुणु निक्कालिउ । घत्ता-मायबप्पु सुहि बंधुयणु गुरु देव वि अवर वि दुहरीणहो । ... होंति परंमुह भंति ण वि गुणवंतो वि पुन्नपरिहीणहो ।।८।।
तो स हवेप्पिणु एयविहारि पयासियासिमहामहुराहे मुरारिभुयग्गलचालियसेले
मही विहरंतउ दुक्कियहारि । समागउ एक्कदिणे महुराहे । थियो तहिँ देववहूकयकीले ।
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