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________________ २५० ] सिरिचंदविरइयउ - [ २३. ३. १६अच्छंतस्स य गच्छंतएण अदिकक्कडस्स मउएण । भिन्नो सो पाहाणो निच्चं जुत्तेण घडएण ॥ २० घत्ता–कि परमत्थें मझु मणु पत्थरह वि निठुरु । जेणेक्कल्लउ परिभममि मेल्लेप्पिणु नियगुरु ॥३॥ इय चितिवि गुरुसामीव जंतु दियहेहिँ साहु नियनयरु पत्तु । थिउ नंदणवणि हुय लोयजत्त आसंकिउ मंति सुणेवि वत्त । एयंति नरिंदहो कहिउ कज्जु तउ ताउ पुणागउ करहुँ रज्जु । जइ जाउ दियंबरु करिवि चाउ निप्पिहु तो किं कारण इहाउ। पुणरवि खलेण पावप्पिएण दीहेण भणिउ किं जंपिएण।। जामज्ज वि सामि न करइ भेउ मारिज्जइ ता किज्जइ न खेउ। इय भणिवि वे वि करवालहत्थ गय रयणिहिँ थिय पच्छन्न तत्थ । तावहि सज्झाउ लयंतएण उच्चारिउ पावकयंतएण । प्रायड्डधाइ सयलु वि सिलोउ निसुणेवि भणइ कयसत्तुसोउ । घत्ता-दीह वियाणिय मुणिवरेण अम्हइं एत्थाया। किह मारेवउ इय भणेवि संकिय संजाया ॥४॥ ५ वइरि वि पुन्नेहिँ विमोह जाइ पुणु अवरु पढिउ आधावधाइ । सहुँ दीहें चविउ सुणेवि राउ पइँ भणिउ ताउ रज्जत्थु आउ । कोणिय महु बहिणि जगेक्कमित्तु तामायउ जाणावणनिमित्तु । उप्पलणालाइ भयावसाणु मुणिभणिउ सुणेप्पिणु नरपहाणु । चितइ जाणेमि सया वि एहु पाविठ्ठ मंति अवयारगेहु । एहन वि अवत्था पुत्तनेहु भावेप्पिणु दूरुज्झियसिणेहु । पेच्छह भयवंतु तिलोयवंदु सिक्खवहुँ समागउ मइँ मुणिंदु । परु सुग्गहिरो वि न होइ अप्पु वरि निग्गुणी वि सुहि मायबप्पु । उक्त च-उपकारशतेनापि गृह्यते न परः क्वचित् । सुगृहीतः सुमान्यो वा यः परः पर एव सः ।। अफलस्यापि वृक्षस्य छाया भवति शीतला । निर्गुणोऽपि वरं बंधुर्यः परः पर एव सः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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