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________________ १०. १६. १३. ] कहको [ १२५ दिट्ठउ न पुणो वि भणंतु गउ महि फुट्ट मरेवि महानरउ । कि नंदइ कहिँ मि असच्चरउ जहिँ सच्चु तत्थ पर होइ जउ । मिच्छत्ते को न वियारियउ हुउ सो अणंतसंसारियउ। ५ संताणि तासु मिच्छत्तहरा अज्ज वि जायंध हवंति नरा।। अच्छरिउ एउ पेच्छेवि जणा संजाय सव्व सम्मत्तमणा।। राया वि सपुत्तहो रायसिरि गउ अप्पिवि अप्पणु गहणगिरि । सुंदरमइ पत्थिवसयसहिउ निव्वेयचित्तु चिंतियसहिउ । पणवेवि समाहिगुत्तपयहँ लग्गउ निच्चलमणु मुणिवयहँ । १० चिरयालु करेप्पिणु तवचरणु महि विहरिवि संबोहेवि जणु । घत्ता–सिरिचंदजसोहु सुरनरिंदनाइंदनुउ । गोवज्जगिरिंदे परमप्पउ सिवसंतु हुउ ।।१६॥ विवहरसविसाले णेयकोऊहलाले। ललियवयणमाले अत्थसंदोहसाले ।। भुवणविदिदनामे सव्वदोसोवसामे। इह खलु कहकोसे सुन्दरे दिन्नतोसे ॥ मुरिणसिरिचंदपउत्ते सुविचित्ते पंतपयदसंजुत्ते । मिच्छत्तफलपयासो दसमो संधी समत्तो यं ॥ ॥ संधि १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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