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________________ १. ७. ८ ] , - कहकोसु अज्झयणेण' वसिज्जइ चित्तं तेण हुयं मह तम्मि पयत्तं । कि कीरइ कव्वउ' व निरुत्तं तो कहियं मेत्तं पि कइत्तं । किं पुण नाणाभावनिउत्तं कइ कव्वं विरएइ विहत्तं ।। घत्ता–कि कीरइ ताण वरवायाण जइ वि विमुक्क सुधम्महैं। वणिज्जइ नेयगुण बहुभेय देवागमगुरुधम्महँ ॥ ५॥ wr निप्पक्खु पक्खि उड्डणमणु व्व गुरणकोडिविज्जिउ सुरधणु व्व । जइवि हु वरवण्णु विसुद्धमइ सामग्गिहीणु किं करइ कइ । विविहागमु कइयणसंसयण वायरणु सतक्कु' देसिवयणु । छंदालंकारु नाउ भरहु वेज्जय-गहगणिय-कव्वनिवहु । विन्नाणइँ रंजियजणमण अवरइँ वि अणेयइँ लक्खण'। ५ सामग्गि कइत्तरगेण जडिय अवर वि बहुगुणमरिगसंजडिय । पावइ एत्तियहँ न मज्झे महुँ तुडि कवरण चिरागकईहिँ सहुँ । आगमु आगमणमयहिँ मुरिणउ मइँ अण्णु कयावि णेय भरिणउ । कइ वारगर तहुँ संसयणु वणे वायरणु वयणसंगामु जण । लक्खियउ तक्कु मइँ महिउ पर देसी वि विविह वरिणजार नर । १० सच्छंदू वियणि वरणयरणियरु साहरणु तहालंकारु वरु । अहिनाउ भरहु पुरु चक्कवइ विज्जउ निव्वाहो वायगइ । गह रक्खस गणिया सव्ववहु आयामिसरासि कव्वनिवहु । विन्नाणइँ विगयणागरसइँ लक्खरण मुणेमि रणं सारसइँ । घत्ता-महु धर्म परेक्क भत्ति गुरुक्क अण्णु किं पि न वियाण मि । जलहि व्व असोसु जो कहकोसु सो हउँ केम समारणमि ।। ६ ।। जो विरइउ आसि महामईहिं तं रयमि केम हउँ मंदमइ अह जो जूहिंदें मग्गु कउ इय जाणेवि जइ किं पि वि करमि विणु कज्जे वड्ढियपावमल कि ताण भएण न उग्गमइ जीवउ जणु परगुणजणियजउ ससहाउ पयासइ सव्वु जणु ५. १ अन्णेन । २ किं करइ वउ । ३ कहिए। महरिसिहिँ अणेयहिँ सक्कईहिँ । भूयरहो होइ किं गयणगइ । किं कलहु ण वच्चइ तेण मउ । तो दुट्ठमणाहँ ण उव्वरमि । साण व छणससिह भसंति खल। ५ तारावइ जगतमोहु समइ । अहवा दुज्जरगहँ वि दोसु नउ । उण्हत्तु व सिहि सीयत्तु वणु । ६. १ सत्तक । ७. १ पवच्चइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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