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नय अधिकार
देहीणं पज्जाया सुध्दा सिध्दाण भणइ सारित्था । जो सो अणिच्चसुध्दो पज्जयगाही हवे स णओ ॥ २०४ ॥ विभावनित्यशुध्दोऽयं पर्यायार्थी भवेदलं । संसारिजीवनिकायेषु सिध्दसादृश्य पर्ययः ॥ ५ ॥ पर्यायान् अंगिनां शुध्दान् सिध्दानामिव यो वदेत् । स्वभावनित्यशुध्दोऽसौ पर्याय ग्राहको नयः ॥ ११ ॥
कारण द्रव्य कारण गुण-कारण पर्याय ये नित्य शुद्ध रहते है। संसार अवस्था में भी अशुद्ध कार्य पर्याय अवस्थाको गौण कर सदा नित्य शुद्ध रहनेवाला जो कारण पर्याय वह सिद्धोंके काय शुद्ध पर्यायके समान शुद्ध रहता है इस अपेक्षासे नित्य शुद्ध कारण पर्याय को ग्रहण करनेवाला कर्मोपाधि निरपेक्ष नित्य शुद्ध पर्यायाथिक नय है।
कर्मोपाधिसापेक्ष स्वभावोऽनित्य-अशुद्ध पर्यायाथिकः । यथा- संसारिणां उत्पत्तिमरणे स्तः ।। ६३ ।।
भणइ अणि चा सुद्धा चउगइ जीवाण पज्जया जो हु। होइ विभाव अणिच्चो असुद्धओ पज्जयत्थिणओ ॥२०५॥ अशुद्ध नित्य पर्यायान् कर्मजान् विवृणोति यः । विभावानित्यपर्याय ग्राहकोऽशुद्ध संज्ञकः ।। १२ ।।
जो नय संसारी जीवोंकी चतुर्गति भ्रमणरूप कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध अनित्य पर्यायोंको ग्रहण करता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य-अशुध्द पर्यायाथिक नय है।
। इस प्रकार पर्यायाथिक नयके भेदोंका वर्णन समाप्त )
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