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________________ प्रमाण अधिकार ( ३७ ) स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्वप्रकाशने । भेद साक्षात्-असाक्षात् च, ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ ( देवागम १०५ ) स्याद्वाद नयज्ञान रूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञेय पदार्थोको जानते है । उसमे भेद इतनाही है, कि केवलज्ञान साक्षात प्रत्यक्ष जानता है। स्यादाद नयरूप श्रुतज्ञान परोक्ष आगमके माध्यमसे जान सकता है। यदि उनमेसे कोई भी सर्व तत्वोंका प्रकाश न करे तो वह अवस्तुभूत कहे जावेगे। नयके विषयमे और एक बात 'वशेष ज्ञातव्य हैं कि, नय प्रमाणज्ञानसे कोई भिन्न वस्तु या प्रमेयवस्तु नहीं है । वह तो वस्तुगत सामान्य विशेषरूप अनेक धर्मोमेसे किस एक विवक्षित अंशधर्मको मुख्य तथा अन्यअंशोको गौण अविवक्षित कर उसी विवक्षित अंशके माध्यमसे वस्तुको जानता है । जैसे जब द्रव्याथिक नयसे जिसको आत्मा या जीव रूपसे ग्रहण किया था उसीको भेदरूप व्यवहार नयकी अपेक्षासे संसारी मुक्त अथवा संसारीके एकेंद्रिय द्वींद्रिय आदि भेद रूपसे ग्रहण करना यह सब नयज्ञान है। द्रव्याथिकनयमे निश्वयनयसे स्वतः सिद्ध शुद्ध आत्मतत्वकी चेतनधर्मकी विवक्षा होती है इसलिये उसका चेतन आत्मारूपसे ग्रहण किया । लोकव्यवहारमे चेतनधर्म सूक्ष्म होनेसें दृष्टिगोचर नही है । संसारी जीव जो कर्म-नोकर्मके संयोगमे एकेंद्रियादि अवस्था धारण करता है, उस भेदरूप र्यायधर्मसे व्यवहार किया जाता है। उस समय अन्य संयोगरूप भेद मुख्य विवक्षित होता है । मूल जीवतत्व गौण अविवक्षित होता है जीवतत्व न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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