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वहा दी है उसका भाव यह है कि 'पूर्वाचार्य रचित गाथाओं का एकत्र संग्रह करके देवसेन गणी ने धारानगरी में निवास करते हुए यह दर्शनसार जो कि भव्यों के लिये साररून हैं श्री. पार्श्वनाथ जिनालय में वि. सं. ९९० को माघ सुदी दशमीं को रचा हैं" । अतः यदि यही देवसेन नय चक्र के कर्ता है तो नयचक्र विक्रम की दशमी शताब्दी के अन्त में रचा है | अपने नय चक्र के आधार पर उन्होने आलाप पद्धति की रचना की है । दोनो का विषय समान हैं । नयचक्र प्राकृत भाषा में निवद्ध है और आलाप पद्धति संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं उसके आरम्भ में लिखा हैं
'आलापपद्ध तिर्वचन रचनानुक्रमेण नयचक्रोपरि उच्यते' फिर प्रश्न किया गया कि उसकी क्या आवश्यकता हैं ? अर्थात् नय चक्र की रचना करने के बाद आलापपद्धतिकी रचना किस प्रयोजन से की जाती है तो उत्तर दिया है कि- द्रव्यलक्षण की सिद्धि के लिये और स्वभाव की सिद्धिके लिये इन दोनोंका कथन नय चक्रमें नही हैं । अतः आलापपद्धतिके प्रारम्भ में द्रव्य गुण, पर्याय और स्वभाव का कथन करके नयचक्र में प्रतिपादित नय और उपनय के भेदों का कथन किया गया है । उपलब्ध साहित्य में केवल नय को रचे जानेवाले ग्रन्थ देवसेनकृत नयचक्र और आलाप पद्धति ही हैं। इनके सिवाय इस तरह के किसी अन्य ग्रन्थ इसके पूर्व रचे जानेका कोई उल्लेख भी दिगम्बर परस्परामें हमारे देखने में नही आया । इसके पश्चात् ही द्रव्य प्रकाशक नय चक्र नथा श्रुतभवन दीपक नयचक्र रचा गया है" ।
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अभीतक आ. देवसेन की निम्नलिखित रचनाए प्रकाश में आई हैं- १ भावसंग्रह- इसमें चौदह गुणस्वानोंके स्वरूपका
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