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________________ गुण व्युत्पत्ति अधिकार ( ८३ ) २१००० वर्ष- ५ पंचमकाल (उत्सर्पिणी) १ कोडाकोडी सागर (४२००० वर्ष कम)- ४ चतुर्थकाल (उत्सर्पिणी) २ कोडाकोडी सागर- ३ तृतीय काल (उत्सर्पिणी) ३ कोडाकोडी सागर- २ द्वितोयकाल (उत्सर्पिणी) ४ कोडाकोडी सागर- १ प्रथम काल (उत्सर्पिणी) सूर्यके उदय कालसे अस्तकाल- १ दिन। चंद्रके उदयसे अस्तकाल तक- रात्र इस प्रकार ज्योतिष-विमानचक्रके कालसे दिनरातका व्यवहार कालप्रमाण ज्ञात होता है। यह सब उपचार काल व्यवहार काल उपचार नय है । इसी प्रकार क्षेत्र का प्रमाण भी उपचार नय हैं। असख्यात- प्रदेश- १ यव|२००० कोश- योजन ८ यव- १ अगुल ५२६॥६- - भरतक्षेत्रव्यास ८ अंगुल-१ वीत 1१ लाख योजन-जंबूद्धीपव्यास २ वीत- १ हाथ ४५ लाख योजन- अडीच द्वीपव्यास ४ हाथ- १ धनुष ४५ लाख योजन- सिद्धशिला २००० धनुष- १ कोश |३४३लाख योजन-धनलोन प्रमाणक्षेत्र समानशील हुये विना और पुद्गल का सख्य संश्लेम संबंध होता नही इसलिये जिस प्रकार उपचार नयसे कर्म के संयोगमें जीवका राग द्वेष मोह भावरूप परिणमन, जीवकी १४ गुणस्थान १४ मार्गणा १४ जीवसमास अवस्थाएं सब अचेतन भाव कहे जाते हैं, उसी प्रकार कार्माणवर्गाणा रुप पुद्गल द्रव्यभी जीवके परिणामका निमित्त लेकर जब कमरुप परिणमन करता है तब जीवके ज्ञानादि गुणोंका घात करता हैं इसलिये उसको उपचारसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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