________________
गउडवहो देउ सुहं वो पसु-वइ-सिराहि गोरी-विसरिअव्वेहि । सोवालंभ व्व हिमालअंक-परिघोलिरी गंगा ॥ ५८॥ सा जअइ हर-सिरत्थम्मि जीऍ सालिलम्मि घोलिर-कवालो । अज वि पिआमहत्तमणहं चउराणणो वहइ ॥ ५९॥ हरि-चलण-णह-प्पहाए विच्छोलिअं व पढमअं । हर-ससिणो पाअएहिं संवलिअ व वीअअं॥६० ॥ गहिअ-हिम-च्छाअ व तुहिणद्दि-समावडणए । कारण-परिसुद्धअं व गंगाएँ णमह सलिलअं॥६१॥
__ ददातु सुखं वः पशुपतिशिरसो गौरीखेदैः। सोपालम्भेव हिमालयादकपरिघूर्णनशीला गन्गा ॥५८॥सा जयति हरशिरःस्थे यस्याः सलिले घूर्णनशीलकपालः। अद्यापि पितामहत्वमनघं चतुराननो वहति ॥ ५९॥ हरिचरणनखप्रभया धौतमिव प्रथमकम् । हरशशिनः पादैः संवलितमिव द्वितीयकम् ॥६०॥ गृहीतहिमच्छायकमिव तुहिनाद्रिसमापतने। कारणपरिशुद्धमिव गङ्गाया नमत सलिलम् ॥ ६१ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org