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इस संसार में नकली सिक्का नहीं, असली सिक्का चलता है । सत्य उसी को प्राप्त होता है जो सत्य की अनुभूति करता है । और सत्य की यथार्थ अभिव्यक्ति भी वही कर सकता है, जो उसकी अनुभूति कर चुका हो ।
अनुभूति पूर्ण अभिव्यक्ति मार्मिक होती है। दूसरों की अनुभूति भी तभी प्राप्त हो सकती है जब व्यक्ति जीवन के उतार-चढ़ाव में गहरा पैठता है।
एक अस्सी वर्ष के स्वस्थ पादरी ने अपने स्वस्थ एवं प्रसन्न जीवन का मूल मंत्र इन चार वाक्यों में बताया है
“आधा खाओ, दुगुना पानी पीओ, तीन गुनी नींद लो; और चार गुने हँसो।"
दीर्ष जीवन के लिए उतावलापन शत्रु है। विशाल आकांक्षाएँ थकावट हैं, आलस्य और निकम्मापन बीमारी है।
एक बार स्वामी विवेकानन्द काशी में एक रास्ते से जा रहे थे। रास्ता ऐसा था कि एक ओर तालाब और दूसरी ओर ऊँची दीवार, दूर तक दोनों बराबर जा रहे थे। रास्ते में बंदर भी बहुत थे। यों भी काशी के बंदर बड़े ढीठ और भयानक अधिक होते हैं । बंदरों के मन में जाने क्या आया कि वे इधर-उधर से दौड़कर स्वामीजी का रास्ता रोकने लगे और एक भयंकर अंदाज से चीखने लगे। वे बार-बार निकट आकर स्वामीजी के पाँवों को काटने का प्रयत्न भी करने लगे । स्वामीजी ने अपने को बचाने के लिए दौड़ना शुरू किया, तो बंदर भी उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। जितनी तेजी से स्वामीजी दौड़ते उतनी ही तेजी से बन्दर भी दौड़ने लगे। आखिर उनसे छुटकारा पाना असंभव-सा दीखने लगा।
अमर डायरी
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