________________
सत्कार्य में किसी को अपने से आगे न बढ़ने दे । किन्तु दूसरों की योग्यता और गुणों से द्वेष न कर, अपितु स्वयं अपने सत्प्रयत्नों को तीव्र कर, अपनी बुद्धि का विकास कर आगे बढ़ना चाहिए ।
*
*
सत्विक ईर्ष्या में मनुष्य की वृत्तियाँ उच्च होती हैं; उसमें आगे बढ़ने की स्पर्धा रहती है ।
तामसिक ईर्ष्या में मनुष्य की वृत्तियाँ नीच होती हैं उसमें बराबर के साथी को पछाड़ने का मात्सर्य रहता है।
पहली वृत्ति में मन के उत्साह और साहस के दर्शन होते हैं। दूसरी वृत्ति में मन की दुर्बलता और हीनता पर धूर्तता का नकाब डाल कर छिपाने का प्रयत्न होता है ।
संत कबीर ने एक जगह कहा है“मोटी माया सब तजैं, झीनी तजी न जाय । पीर पैगम्बर ओलिया, झीनी सबनि को खाय ॥ *
यह झीनी माया क्या है ? 'मताग्रह' । संसार का मोह छोड़ कर संप्रदाय के मोह में डूब गए ? मत और सम्प्रदाय का मोह अंहकार पैदा करता है, और वह सूक्ष्म अहंकार, संसार का त्याग करने पर भी सच्चा त्यागी नहीं बनने देता । जैन दर्शन ने धन संपत्ति को स्थूल परिग्रह (मोटी माया) माना है । और रागद्वेष को सूक्ष्म परिग्रह (झीनी माया) ! सूक्ष्म परिग्रह छूटना कठिन है ।
*
*
*
जीवन के सम्बन्ध में भारत और पश्चिम का चिन्तन, कितना भिन्न है ? इस संदर्भ में एक विदेशी महिला के दो प्रश्न मननीय हैं ।
एक स्विस युवती ने एक बार एक भारतीय विचारक से पूछा - " कि आखिर यह कैसे सम्भव है कि इंडिया के लोग एक ही साथी के साथ जिंदगी गुजार देते हैं? एक ही व्यक्ति के साथ रहते-रहते 'बोर' नहीं हो जाते ?"
66
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
अमर डायरी
www.jainelibrary.org