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वह क्या
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यह कि मेरी प्रेमल पत्नी के हाथ की बनी रसोई अब मुझे खाने को नहीं
मिलती ।
धन ने मानवीय श्रम का मूल्य कम कर दिया और उसके साथ श्रम में छुपा आत्मीय प्रेम भी अब दुर्लभ हो गया ।
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भारतीय परम्परा में अतिथि को देवता के रूप में माना है। अतिथि सेवा और अतिथि सत्कार में अतिथि के किसी भी जाति या कुल आदि के विशेषण को नहीं देखा जाता, किन्तु आतिथ्य ग्रहण करने वाले के एकमात्र आत्म रूप को ही देखा जाता है ।
महावीर प्रसाद द्विवेदी का एक संस्मरण है कि एक बार उनके यहाँ कोई साधारण लेखक मिलने के लिए आया ।
द्विवेदी जी ने उसे भोजन के लिए बैठाया और स्वयं पंखा झलने लगे । नवीन लेखक ने शर्माकर कहा - " आप बड़े होकर पंखा झलेंगे तो मुझसे खाया नहीं जायगा । "
द्विवेदी जी ने कहा - " मित्र ! इस समय तो तुम मुझसे बड़े हो, क्योंकि तुम मेरे अतिथि हो ।”
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संग्रह बुद्धि से किया गया संग्रह, संसार को नरक बनाता है। वितरण बुद्धि से किया संग्रह संसार को स्वर्ग बनाता है। धन को बटोर - बटोर कर संग्रह करते जाना, एक बड़ी बुराई है । और दूसरी इससे भी बड़ी बुराई है— धन को बुरे कर्मों में खर्च करना । 'एक करैला, दूसरे नीम चढ़ा, ― वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती है ।
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अमर डायरी
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