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मातृभूमि के प्रेम के समक्ष मानव हृदय के सभी प्रेम और आकांक्षाएँ तुच्छ हैं । मातृभूमि स्वर्ग से भी महान् है।
बाल्मीकि रामायण में एक प्रकरण है। लंका विजय के बाद जब राम ने अयोध्या लौटने की तैयारी की, तो लक्ष्मण ने कहा-“यह सुवर्ण नगरी लंका छोड़कर अब हम अयोध्या जाकर क्या करेंगे?" इस पर राम ने गम्भीर भाव से कहा
___अपि स्वर्ण मयी लंका, न मे लक्ष्मण ! रोचते।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। -लक्ष्मण ! यह सोने की लंका मुझे अच्छी नहीं लग रही है । मुझे तो बस अपनी जन्मभूमि की याद आ रही है। जननी और जन्म-भूमि स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है, अधिक महान् है।
आपत्ति एक विशाल आईना है। उसमें मनुष्य सिर्फ अपने को ही नहीं पहचानता, बल्कि, अपने मित्र और शत्रु को भी पहचान लेता है।
संतों ने कहा"साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहि वाणी तो अनमोल है जो ही जाने बोल हीरा तो दामन बिकै, वाणी का नहीं मोल जो कुत्ता दर दर फिरै, दर दर दुर-दुर होय एक ही दर का हो रहे दुर-दुर करै न कोय !"
- अमर डायरी
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